पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५३४

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हिन्दीमें आलोचना किसीकी बातको मान लं, यह आपकी शुरूसे ही आदत नहीं है। इस बीचमें कविता तो आपको और कोई नई नहीं छपी, पर लेख कुछ छपे । उनमेंसे एक लेख उस सालकी होलीके दूसरे नम्बरमें छपा था। उसका शीर्षक था-"अथ श्रीप्लेगस्तवराजः।" जितने लेख आपने 'भारतमित्र में लिखे उन सबमें यही हमें अधिक पसन्द आया और इसीकी बाहरसे भी प्रशंसा हुई। __ दूसरा लेख “अप्पयदीक्षित" था। शायद द्विवेदीजीके मित्र यह सुनकर चौकगे कि उस समय “सरस्वतो" हमारे द्विवेदीजीको “आंख में भी न जाने क्यों काटेसी चुभती थो" ! आपने इस लेखमें सरस्वतीको माकूल झाड़ बताई है। पूरा लेख सवा कालमका है, नहीं तो ज्योंका त्यों नकल करनेमें मजा आता। खैर, उसके कुछ अंश जहां-तहांसे नकल कर देते हैं। श्रीगणेशहीसे लीजिये- “काशीकी नागरीप्रचारिणी सभाके पांच पण्डित इंडियन प्रेस प्रयागसे प्रतिमास एक 'सरस्वती' निकालने लगे हैं। इस सरस्वतीकी दूसरी संख्यामें अप्पयदीक्षित पर एक लेख है। इस लेखका मसाला काव्य-मालासे लिया गया है। 53 इस लेखमें अनेक प्रमाद हैं, जिनका निराकरण करना हम उचित समझते हैं।" यह श्रोगणश था। आगे उन्होंने जिस ढङ्गसे लिखा है, उसका भी कुछ नमूना लीजिये - “सरस्वतीके बोर्डआफ यडिटर्स (सम्पादक समिति) का कथन है कि अप्पयदीक्षित महाराष्ट्रीय जातिके थे-'" इसी प्रकारके छेड़-छाड़के शब्दोंके साथ 'सरस्वती'के अप्पयदीक्षित सम्बन्धी लेखकी भूलं दिखलाई हैं। सारांश यह कि कोई ६ महीने तक द्विवेदीजीकी 'भारतमित्र' पर [ ५१७ ।