पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५५१

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गुप्त-निबन्धावली मालोचना-प्रत्यार यदि भाषाके जोड़-तोड़पर वह ध्यान रखा करें, तो उनको ! सामान इकट्ठा करनेकी जरूरत न पड़ा करे। कठिनाई यह है कि बातों का व्याकरणसे सम्बन्ध नहीं, यह भाषाके जोड़-तोड़से सर रखती है। यही कारण है कि द्विवेदीजी जहां-तहां बहुतसे 'वह' और 'को' बढ़ानेके तरफदार हैं। आत्मारामकी इन मीठी छेड़े अफसोस है कि आपने गालियां समझा, इसीसे उनके असली मतल छोड़कर दूर चले गये। यहां तक कि जिस सभ्यताके आप बड़े पक्ष हैं, इस झगड़े में यह भी आपने गंवा दी। ____ अधिक दिल्लगी आत्मारामने उन बातोंपर की है, जो असलमें हैं और द्विवेदीजी उनको बहुत भारी समझते हैं। यदि एक ही शर उच्चारण दो प्रकार हो, तो इसमें कोई क्या कर सकता है ? पर द्विवे उसमेंसे भूलें निकालते हैं । जैसे आत्मारामके लेखोंमें 'जुबान' 'ज 'जुबांदानी' 'जबांदानी' 'जबानदानी' 'जुबानदानी' मौके-मौकेसे र है। द्विवेदीजी इसपर भी एतराज जमाते हैं। ऐसी बातोंपर एत जमानेवालेकी दिल्लगी न उड़ाई जाय, तो क्या किया जाय ? 3 नावाकफियतसे दूसरोंकी सही चीजोंमें भूले निकालना हंसी करा कि नहीं ? क्या व्याकरण ऐसा हुक्म लगा सकता है कि 'जुबान' कहो या 'जबान' ही कहो ? इसी प्रकार 'जायंगे' 'जायेंगे' 'ज तीनों बराबर बोले जाते हैं। इसमें से पहला बोलने में ज्यादा आ और पिछले दोनों लिखने में । द्विवेदीजी इससे भी अप्रसन्न हैं। अप्रसन्नतासे क्या हो सकता है ? उनको नाराजीसे तो इन तीन एक बन नहीं सकता। व्याकरण यह बता सकता है कि यह । बोले जाते हैं, इनको मिटा तो नहीं सकता। द्विवेदीजीका खयाल है कि आत्मारामने उनपर खास चोटें क पर ऐसा नहीं है। असलमें उन्होंने आपके लिखनेकी ढंगकी दिल्लर्ग [ ५३४ ]