पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तुलसी सुधाकर 'तुलसी सत्सई'का २४१ नम्बरका दोहा है- हंस कपट रस सहित गुन अन्त आदि प्रथमंत । भजु तुलसी तजि बामगति जेहि पदरत भगवंत ।। सहजमें हमारी समझमें यह दोहा न आता, पर सुधाकरजीने इसकी टीका कर दी है। हंस-मराल, मरालका अन्त ल, कपट छलका आदि छ, रस-पुष्परस-मकरन्दका आदि म और गुनका अन्त न- सब मिलाकर लछमन हुआ। इस प्रकार पहाड़ तोड़कर सुधाकरजीने अर्थ निकाला, पर फिर अर्थ निकालकर आप अपनी कुण्डलियां यों बनाते हैं--- जेहि पदरत भगवन्त भोगिहू बनि जेहि पूजो । तेहि राघव पद बिना सुगतिदाता नहिं दृजो । सीस जनक के आदि ___ अन्तपति जगपर ससंक । उर मानस महं रखहु सदा अस द्विजवर हंसक। कुण्डलिया बनाकर आपको कुण्डलियाकी भी टीका करनी पड़ी। आप लिखते हैं-सीसका आदि 'सी' और जनक-पिताका अन्त 'ता' मिलकर सीता हुआ । अर्थात् सुधाकरजी महाराजने जो “सीस जनक के आदि अन्त पति” लिखा है, इसका अर्थ है सीतापति । पहाड़के पेटमें दर्द उठा, चूहा उत्पन्न हुआ। ___ इसमें कुछ सन्देह नहीं कि द्विवेदीजी महाराजको इस रचनामें बड़ा भारी परिश्रम और बड़ा भारी कष्ट हुआ होगा। उन्हें महीनों नहीं, तुलसीके दोहोंका अर्थ लगाते वर्ष बीत गये होंगे। उसपर फिर अपनी [ ५५५ ]