पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५७६

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प्रवासीकी आलोचना अभी वह दिन दूर है कि जब हिन्दुस्थानियोंका सूखा दमाग हरा होगा। तब तक हमें बंगलाके उच्छिष्ट पर ही गुजारा करना होगा । क्या अच्छा होता, जो दूसरोंकी पोथियां चुपचाप अपनी करनेवालोंके लिये कोई कड़ा नियम होता। ग्रन्थकारोंकी आज्ञा बिना कोई उनकी पोथियोंका तरजमा न करने पाता। ऐसा होता तो बंगलाके कई ऐसे उपन्यास हिन्दीमें न आजाते, जिनमें पुराने हिन्दूवीरोंकी निन्दा है। ऐसे बंगाली लेखकोंको सहयोगी "प्रवासी'ने सावधान होकर लिखनेको कहा है, इसके लिये उसका हृदयसे धन्यवाद किया जाता है। -भारतमित्र सन १६०३ ई० बंगला साहित्य गत वार हमने बङ्गला मासिक पत्र 'प्रवासी की हिन्दी मासिक पत्रों- की आलोचनाके विषयमें कुछ बात कही थीं। इस समय दो-चार और भी बात कहनेकी जरूरत पड़ी है। प्रवासीने लिखा है कि कलकत्तेके 'दारोगादफ्तर' नामके डिटेकिव मासिक पत्रके लेख भी हिन्दीवालांने तरजमा किये हैं । यह काम बिना अनुमति किया है और असली पत्रका नाम भी नहीं दिया गया। हमारी समझमें 'दारोगादफ्तर के किस्से किसी हिन्दी पत्रवालेने तरजमा नहीं किये हैं। शायद “जासूस” पर यह कटाक्ष किया गया हो, पर जासूसवालोंने हमें लिखा है कि 'जासूस' में कभी 'दारोगादफ्तर के किसी लेखका तरजमा नहीं हुआ। यदि 'प्रवासी'का इशारा उसीपर हो तो उन लेखोंका पता देने में कुछ बेजा बात नहीं है। प्रवासीने यह भी लिखा था कि 'समालोचक में हमारे कुछ लेख तरजमा किये गये हैं। इस बातको भी 'समालोचक'वाले झूठ बताते हैं। वह कहते हैं कि प्रवासीका कोई लेख हमने तरजमा नहीं किया। यदि किया हो, तो उसका वह पता दे।