पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५९६

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देव-देवी स्तुति परस्यो कर सीम जटायु निज, धाम ताहि छनमें दयो । जय पवन-सुवनकी प्रीति लखि, अङ्ग अङ्ग पुलकित भयो। ( ) सुग्रीवहि लखि दुग्वी आपनी दशा बिसारी । फरकहि भुजः विशाल देह थहरावत सारी ।। एक वानमों मारि बालि सुरधाम पठायो। तारा कहं परबोधि भक्तको का मिटायो ।। जय बालिसुतहि पायक करन, निरग्वि जाहि पुलकित हियो। करि तिलक माथ कपिरायके, भीत-अङ्क राजा कियो । छाड़ि गेह अरि-भ्रात आय चरनन सिरनायो । अग्रजके डर डस्या मनहिं अतिही सकुचायो ।। चितवतही एकबार अहो ! पलटी ताकी गति । लात खायकै कठ्यो भयो छनमें लङ्कापति ।। दससीम मारि महिभार हरि. असुरन दीन्हीं विमल गति । जय जयति राम रघुवंशमनि, जाहि दीन पर नेह अति ।। देवराज भये मुदित अमरपुर बजत बधाई । बजहिं दुन्दुभी, भीर बिमाननकी नभ छाई ।। [ ५७९ ]