पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५९७

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गुप्त-निबन्धवाली सुट-कविता सुरवाला सब मुदित अङ्ग फूली न समावें । फलन वर्षा होय देवगण अस्तुति गावे ।। त्रसित जिये बहुकाल प्रभु ! असुर मार दीन्हीं अभय। अब जाय अवध परतोषिये, जयति राम रघुवीर जय।। (६) पूरन शशि जिमि निरखि उदधि बाढ़त तरङ्गमों। देग्वि घटा घनघोर मोर नाचत उमङ्गसों ।। सो आज अवध-सुख उमड़त नाहिं समावत । निरग्वि राम रिपु जीनि भ्रात मीता सँग आवत ।। प्रमुदित गुरु जननी नारि नर. सुख न जात केहुको कह्यौ।। अरु भ्रात शिरोमनि भरतकं, मोद जलधि हियमें बह्यो ।। (१०) हम प्रभु दीन मलीन हीन सब भांति दुखारी । धर्म रहित धन रहित ध्यानच्युत बहु अविचारी ।। यद्यपि न काहू भांति सुखी भोगत करमन फल । मोचि-सोचि निज दशाभस्यो आक्त आँखिन जल ।। पं तदपि होत सुखो हियो, हस्यो, सुमरि दिन आजको। राजतिलक हियमैं बसौ, श्रीरामचन्द्र महाराजको ।। -हिन्दी-बङ्गवासी, ८ अक्टबर १८५४ ई०