पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६०६

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देव-देवी स्तुति जहं मारीको डर नहीं अग अकालको त्राम। जहां करें सुख सम्पदा बारह मास निवास ।। जहां प्रबलको बल नहीं अरु निबलनकी हाय । एक बार सो दृश्य पुनि आंखिन देहु दिखाय ।। करहिं दसहरो आपको दुःग्व ताप सब भूल । पुनि भारत सुखमय करौ होहु राम अनुकूल !! पुनि हिन्दुन के हीयको बाढ़े हर्ष हुलाम । बने रहैं प्रभु आपके चरण कमल के दाम ।। --भारतमित्र, १ अक्टुबर १९०० ई. राम-विनय अबलों हम जीवत रहे लै लै तुम्हरो नाम । मोह अब भूलन लगे, अहो राम गुनधाम ।। कर्म धर्म संयम नियम जप तप जोग विराग । इन सबको बहु दिन भये खलि चुके हम फाग ।। धनबल, जनबल, बाहुबल, बुद्धि विवेक विचार । मान तान मरजादको बैठे जूओ हार ।। हमरे जाति न वन है नहीं अर्थ नहिं काम । कहा दुरावैं आपसे, हमरी जाति गुलाम ।। बहु दिन बीते राम प्रभु खोये अपनो देस । खोवत हैं अब बैठकै भाषा भोजन भेस ।। नहीं गांवमें झंपड़ो नहिं जंगलमें खेत । घरही बैठ हम कियो अपनो कञ्चन रेत ।। पसु समान बिडरत रहैं पेट भरनके काज ।