पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६०९

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गुप्त-निबन्धावली स्फुट-कविता अंग भभूत लगाय किये विषपान फिर चहुँ ओर उघारो। माल भुजङ्गनकी गर डारि जटानको भार धस्यो सिर भारो॥ भूतन ईस कपाली सदा जगदीशके नामसों जात पुकारो। तेरे ही पानि गहे को अहो जगदम्ब अहै शुभ सो फल सारो। मांगत हूं गति मुक्ति कछु अरु नाहिं विभौकी सुचाहना मेरी। नाहिन चाहत हूं बहु ज्ञान नहीं कछु लोलुपता सुख केरी ।। जाचत हं जननी तब तोहि दया करिक मोहि सो बर देरी। जीवन बीत सुनो मम री शिव गौरीही गौरी सदा जपतेरी॥ (६) करिके बहु उपचार नाहि विधि सहित अराधी। रखे चितवनहसे निसि दिन मौनहि साधी । ताह पै तव नेह है किञ्चित मोपै माय । यही तोहि जननी उचित तेरो यहै सुभाय ।। विपत पर 4 सुमिरों तोकों धाय । हे करुणाकरनी सुख दैनी माय ।। मेरी या मठता पै दीठि न जाय । भूखो सुत टेरें मायहि अकुलाय ॥ तेरी करुणा मोपै अमित अपार । यह विचित्र नाहीरी सुख आगार ।। पूत होय कैसोही औगुन पूर । तदपि मात वाको नहिं ताड़ति दूर ।। मो सम नाहिन पातकी तो समान अघहार । देवी जो तव जोग है सोही करहु विचार ।। -भारतमित्र, ८ अक्टूबर १८९४ ई. [ ५९२ ]