पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६१३

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गुप्त-निबन्धावली स्फुट-कविता (ह) पूजहु पूजहु महाशक्ति बलशक्ति बढावनि । भक्तन रक्षा करनि दैत्यदल मारि भगावनि ।। पूजहु पूजहु मात सदा भव-चिन्ता हारिनि मनो कामना सिद्ध करनि कलिकष्ट निवारनि ।। वेता जाके पद पूजिक, रामचन्द्र कीरति लई। सीता पाई रावण हत्यो. लङ्क विभीषन कहं दई ।। पूजहु दुर्गति-दलनि नसँगी दुर्गति मारी सुभङ्करी दुखहरी दीनजन-करि महतारी ।। बेगि बुझगो दुःख दीनताको दावानल । बाढ़े बहु सौभाग्य सौख्य ऐस्वयं बुद्धि बल ।। सब ताप दीनता पाप दुग्य, सङ्कट दूर नसायगो। अरु भारतवासिनको पुनः, भाग्य उदय ह जायगो॥ जब मा ! कृपा तुम्हारि रही भारतके ऊपर । तब याके सम तुल्य धरनि पर रह्यो न दूसर ।। याको तेज प्रताप बुद्धि गौरव जस सुनिकर । कांपत ही नित रह्यो हियो शत्रुनको थर थर ।।