पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६२६

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देव-देवी स्तुति ( १५ ) हित करिके पूजा करें मा तोहि मनावें। विनय करें कर जोरिकै, चरनन चित लावै ।। भारत घोर मसान है, तू आप मसानी । भारतवासी प्रेतसे डोलहिं कल्यानी ।। हाड़ मांस नररक्त है भूतनकी सेवा । यहां कहां मा पाइये चन्दन घी मेवा ? दुर्गा नाम रखाय मात तोहि लाज न आई । दुर्गतिनासिन सक्ति मात, अब कहां गंवाई।। तो-सी माता पाय आज हमरी यह दुर्गति । भूखे प्यासे बिडरावहिं पावहिं कलेस अति ।। बेसक हम कपटी कपूत कामी अरु कादर । दर दर मारे फिर हमहि कोउ देहि न आदर ।। तौह तुम्हरे पूत कहावे मात भवानी। तें केहि कारन कियो हियो पाथर पाषानी ? तू अपने पूतनको क्यों नहिं ताप मिटावत । केहि कारन इनके दुखपै तोहि दया न आवत ? सब ही गयो बिलाय कछू अब रह्यो न बाकी । उदर हेत हम बेच चुके मा, चूल्हे चाकी ।। (१८) कहां जायं क्या करें नाहि कहुं मिलत ठिकानो। हम तो अब बहि चले मात तुम्हरी तुम जानो ।। भारत भयो मसान बैठिके ताहि जगाओ। अथवा दयादृष्टिकहं फेरो, फेरि बचाओ। हम अपनी कह चुके, मात अब खुसी तुम्हारी। तव चरनन महं गिरे आय लोचन भरि बारी॥ -हिन्दी-बगवासी, २४ अक्टूबर १८९८ ई. [ ६०९ ] ३६