पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६३१

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गुप्त-निबन्धावली स्फुट-कविता जब सूखे तालू ओंठ मुख, चरन गहे तव आयकै। तब दूर भयो दुख सुरनको, रहे नैन झर लायकै॥ जा घर नहिं तव वास मात सोही घर सूनो। द्वार द्वार बिडरात फिरै तव कृपा बिहूनो । औरनकी को कहे स्वजन जब धक्का मारे । अपने घरके ही घरसों कर पकरि निकारें ।। नहिं भ्रात मात अरु बन्धु कोउ, निरधनको आदर करे। निज नारि हू मा तव कृपा बिन, आनन मोरि निरादरै। कोटि बुद्धि किन होहिं बिना तव काम न आवे कोटिन चतुराई तव बिन धूरहि मिलि जावें । तहं कहं बुद्धि थिराय मात जहं वास न तेरो ? जहां न दीपक बरै रहे केहि भांति. उजेरो ? बहु बुद्धिमान तव कृपा बिन, बुद्धि खोय मारे फिरें। केते मूरख तव लाडिले, दूरि दूरि तिनका करें। कहा भयो जो मरि पचिकै बहु विद्या पाई पोथिन पत्रनकी घर महं अति भीर लगाई । [ ६१४ ]