पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६५२

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जातीय-राष्ट्रिय-भावना वस्त्र वसन्ती सजनेका है शुभदिन येही । दिवस दूसरे प्रातहिसे रङ्ग घोले जाते मबके अङ्ग वसन्ती जोड़े शोभा पाते । सब किसान मिलकर अपने खेतोंमें जाकर फल तोड़ते सरसोंके आनन्द मनाकर। बनमें होते लड़कोंके पाले औ दङ्गल चढ़त ढाकों पर औ फिरते जङ्गल जङ्गल । कूद फांदकर भांति-भांतिकी लीला करते महामुदित हो जहां तहां स्वच्छन्द विचरते । उद्यानोंमें जाती थीं मिल युवती बाला वां पर भी होता था कुछ आनन्द निराला । मुदित चित्तसे कामदेवकी पूजा करती हर्षित मनसे कुञ्ज कुञ्जके बीच बिचरती । बाट देखने लगती थीं ठकुरानीकी तब मुड़ मुड़कर देखती अधिक उत्कण्ठासे सब । चाव भरे मनसे यह कहती थीं सब नारी आ आ प्यारी वसन्त सब ऋतुओंमें प्यारी ।। वहां पहुंचती जब ठकुराइनकी असवारी पूजा करने तब उसके संग जाती सारी । लपक लपक तोड़तीं सभी मञ्जरी आमकी हंस हंसके करतीं पूजा वन्दना कामकी । फिरती फिरती जब कोई अति ही थक जाती पेड़ तले बैठती सखीको टेर बुलाती। मालिनको देती कोई पकवान मिठाई [ ६३५ ]