पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६६५

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गुप्त-निबन्धावली फुट-कविता तुम्हरे गये होयगो तिनको चिरसुख अधिक अपार । तब क्या कहैं रहौ, जाओ प्रिय, जाओ निज सुखगेह याद राखियो भूल न जैयो दीन मित्रको नेह । जब बाहर या धराधाम कहं ग्रीषम देहिं तपाय तब तुम प्यारे अमी ढालियो मेरे हिय महं आय । बनो रहै योंही वसन्त अरु खिलें अनेकन फूल उमड़े स्यामघटा हिय गावें पंछी जमनाकूल । प्रीति वसन्त अनन्त भस्यो यह मम हिय कैसे होय ? सांचि कहो कबहूं वा मंह यह लेहो प्रान समोय । -भारतमित्र, १२ मार्च १९.. ई. वर्षा। छये घोर चहुं ओर मेघ, पावसकी परी पुकार घन गरजत चपला अति चमकत, फरफर उड़त फुहार। देखहु भयो गगन मण्डलको कैसो औरहि रूप औरहि रंग भयो धरनीको सोभा अधिक अनूप ! मिट्यो ताप ग्रीसमको डोलत, सीतल अमल बयार अब नाही बरसत नभतें लूअनके तेज अंगार । अब नहिं उड़त भूमिके मुखपे, निसि बासर बहु धूर अब नहिं रहत धूरि धूसरसों, नभ मण्डल परिपूर । अब नहिं करत पिपासा तन महंप्रान छनहिं छनछीन अब नहिं छटपटात नारी नर, जलबिहीन जिमि मीन। आवहु आवहु मेघ अहो, पावस स्तुके सिरताज तव प्रताप सब सुखे गीले, भये हरेसे आज । [ ६४८ ]