पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६६७

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गुप्त-निबन्धावली स्फुट-कविता बलकर परबत तोड़न हेत लरावत अपने सुण्ड । गरजत, यूथ गजनके मानहु हिलमिल करहिं चिघार फास्यो हीयो कन्दरानको कम्पित भये पहार । अरु सीतल समोरके झोंके भिरत तरुन संग जाय मनहु लता पल्लवके साजन सों सुर रहे मिलाय । मधुर स्वरन कोयलिया कूकहिं पिकहिं मचायो रोर गावत मीठी तान बिहग बहू छनछन नाचत मोर । यह बूढ किसान भारतके अहो मित्रवर नीर ! सबरे हैं तेरी लकीर पं बैठे बने फकीर । नाहिं दूसरो नेहचो जिनके नाहिं दूसरी बान तूही एक सहारो तिनके अथवा श्रीभगवान । मिटी आज उनकी सब चिन्ता दुःख ताप भयो दूर बैठ फूलि फूलि निज खेतन सुखको उठत हिलूर । जो नद पस्यो हतो रेती 4 सिसकत सर्प समान सो अब उमड़ि उमड़ि निज लहरन छयो चहत असमान । फेन उठावत, दौस्यो आवत तटन गिरावत तोर बारम्बार तरंग उठावत करत प्रलय सम सोर । हरे पहारनकी चोटी पै खिले फूल बहुरंग हरे जालमें फसे आय जिमि नाना रंग बिहंग । जहं तहं झरने झर अनेकन फैलाये बहु धार तव गुनगान हेत जिमि खोल जीह हजार हजार । सब दिन तुमसों यही बीनतो हमरी हे घनराय ! यह तुम्हरो भारत चितसों कबहूं नहिं बीसर जाय । रहे सदा हमरे चित महं अङ्कित तव चित्र ललाम सदा बसौ हमरे नैनन महं प्यारे नवघनश्याम ।। -भारतमित्र, २४ सितम्बर १९०० ई० । ६५० ]