पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६८३

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हंसी-दिल्लगी। भैंसका स्वर्ग। भंसके आगे बीन बजाई भैंस खड़ी पगुराती है। कुछ कुछ पूंछ उठाती है और कुछ कुछ कान हिलाती है। हुई मग्न आनन्द कुण्डमें बंधा स्वर्गका ध्यान । दीख पड़ा मनकी आंखोंसे एक दिव्य अस्थान ।। कोसों तक का जंगल है और हरी घास लहराती है । हरयाली ही दीख पड़े है दृष्टि जहां तक जाती है। कहीं लगी है झड़बेरी और कहीं उगी है ग्वार । कहीं खड़ा है मोठ बाजरा कहीं घनीसी ज्वार ।। कहीं पे सरसोंकी क्यारी है कहि कपासके खेत घने । जिसमें निकले मनो बिनौले अथवा धड़ियों खली बने । मूंग मोठकी पड़ो पतोरन और चनेका खार । कहीं पड़े चौलेके डंठल कहीं उड़दका न्यार ।। कहीं सैकड़ों मन भूसा है कहीं पे रक्खी सानी है। कच्चे तालावोंमें आधा कीचड़ आधा पानी है। धरी हैं वो भीगे दानेसे भरी सैकड़ों नांद। करते हैं भैंसे और भैंस उछल कूद और फांद ।। [ ६६६ ]