हंसी-दिल्लगी
मिले शिक्षिता सभ्या जोरू सुखका सार यही है ।
राखे सदा ताहि कान्धे पर सुखका सार यही है ।
मूरख मात पिताने पहले बहु सुख आदर पायो ।
4 इस सभ्यकालमें सो सब चालै नाहिं चलायो।
पीस और पकावं परम चौका देहिं लगाई।
हमरे चरन कमलके नीचे राखं पीठ लगाई।
घरक पर पीठपे देके सुखसे होली गावं ।
उसी तालपे नाचं जो गुर डोरी खच नचावं ।
सभ्य बीबी
सैया हमारे सांचे कन्धया,
नित राखें कांधे लेवं बलैया ।
सारी उठाय पिया माया पिन्हावं,
मेमनमां हमका नचावे तार्थया ।
सास मोरी पीसे ससुर भरे पानी.
हम भैल कुरसीके नाविल पढ़ेया ।।
आप सिखाय सैयां लेक्चर दिवावे,
जलसनमा हमरी करावें बड़ेया।
-हिन्दी-बङ्गवासी, ११ मार्च सन् १८९५ ई.
विज्ञ बिरहनी
होली आई कन्त बिदेश, विरहनके मन अधिक कलेश ।
आये कन्त न भेजी पाती, जल जल उठै बिरहसे छाती ।
बिरह उदधिमें उठे तरंग, विरहन बदले नाना रंग ।
पकड़ा कलम दवात निकाली, कार्डपर लिख चिट्ठी डाली।
जो प्यारे छुट्टी नहिं पाओ, तो यह सब चीजें भिजवाओ।
चमचम पौडर सुन्दर सारी, लाल दुपट्टा जर्द किनारी ।
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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६९६
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