पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/७१६

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हंसी-दिल्लगी अमरीकासे माली सास, चलकर आव हिये हुलाम । खूब बने श्रीकर्जन लाट, होय निराला उनका ठाठ । ऐसी हो उनकी पोशाक, सबकी लगे उधर ही ताक । जमें ठाठसे सब दरबार, सबके बने लाट सरदार । कोई न उनके रहे ममान, सभी रहें ढलकाये कान । माता माम ठाठ यह देख, वार वारके पानी पीवं । देवगे यह छटा निराली, पास लाटके मासू साली । क्यों भई लड़के कैसा रंग, कुछ समझे दिल्लीक ढङ्ग । यह दुनिया है एक तमाशा, नाचो कूदो हीही हाहा । बहती गंगा धोलो हाथ. वही ढाकके तीनों पान । -भारतमित्र, ४ अक्टोबर १९० ई. [ ६९९ ]