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हंसी-दिल्लगी
अमरीकासे माली सास, चलकर आव हिये हुलाम ।
खूब बने श्रीकर्जन लाट, होय निराला उनका ठाठ ।
ऐसी हो उनकी पोशाक, सबकी लगे उधर ही ताक ।
जमें ठाठसे सब दरबार, सबके बने लाट सरदार ।
कोई न उनके रहे ममान, सभी रहें ढलकाये कान ।
माता माम ठाठ यह देख, वार वारके पानी पीवं ।
देवगे यह छटा निराली, पास लाटके मासू साली ।
क्यों भई लड़के कैसा रंग, कुछ समझे दिल्लीक ढङ्ग ।
यह दुनिया है एक तमाशा, नाचो कूदो हीही हाहा ।
बहती गंगा धोलो हाथ. वही ढाकके तीनों पान ।
-भारतमित्र, ४ अक्टोबर १९० ई.
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