पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/७२१

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गुप्त-निबन्धावली स्फुट-कविता न कलियोंकी अब यां दिखाओ बहार, कभी यां पे चलिये न सीना उभार । वह सब काम कोठ पे अपने करो, यहां तो अदब ही को सिर पर धरो । यह सरकारने दी है जो नागरी, इसे तुम न समझो निरी घाघरी । तुम्हारी यह हरगिज नहीं मौत है, न हकमें तुम्हारे कभी मौत है। समझ लो अदबकी यह पोशाक है, हया और इज्जतकी यह नाक है। अदब और हुर्मतकी चादर है यह चढो गोदमें मिस्ल मादर है यह । यही आपकी मा को पोशाक थी, यह आजाद१से पूछना तुम कभी । इनायत है तुम पे यह सरकारकी, तुम्हें दूसरी उसने पोशाक दी। दुपट्टे की खसकन न महरमका जोर । वह बांकी अदाय वह तिरछी चलन, फिफरूं हुआ हो गया सब हरन । बस अब क्या रहा क्या रहा क्या रहा ? फकत एकदम आता जाता रहा ! यह सौदा बहुत हमको महंगा दिया, कि खिलअतमें हाकिमने लहंगा दिया ! १ आजादसे मतलब प्रोफेसर मुहम्मद हुसैन 'आजाद' है । उन्होंने अपनी 'आबे- हयात' नामकी पुस्तककी भूमिकामें उर्दूको ब्रजभाषाकी बेटी कहा है । । ७०४ ]