पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/८

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( ) राजा रामपालसिंहजीकी उदारतासे प्रकाशित होता था और मालवीयजी उसके प्रधान सम्पादक थे। गुप्तजी सन् १८८६ के अन्तिम भागमें कालाकांकर पहुंचकर "हिन्दोस्थान" के सम्पादकीय विभागमें सम्मिलित हुए। यहींसे उनकी नियमित हिन्दी सेवाका श्रीगणेश समझना चाहिये। महामना मालवीयजीकी योजनासे भारतेन्दु-सखा ५० प्रतापनारायण मिश्रजी वहां बुलाये जा चुके थे। कुछ दिनों बाद गुप्तजी भी पहुँच गये। बाबू शशिभूषण चटर्जी वहाँ पहलेसे विद्यमान थे। गुप्तजी उदूके एक सुदक्ष पत्रकार थे, हिन्दी भाषाके साहित्यका मर्म समझनेमें उनको अधिक समय नहीं लगा। "सूर-सागर" और "रामचरित मानस" आपके नित्य पाठके ग्रन्थ थे और मनन पूर्वक पुस्तकावलोकन था आपका अभ्यास-सिद्ध व्यसन। कालाकांकरमें गुप्तजीने पण्डित प्रतापनारायण मिश्रके सत्सङ्गका विशेष लाभ उठाया। वहीं मिश्रजोसे हिन्दी पद्य-रचनाका प्रकार सीखकर आप हिन्दीमें कविता रचना करने लगे थे। “भैसका स्वर्ग' शीर्षक कविता गुप्तजीकी पहली हिन्दी रचना है। अपनी पद्य रचनाको वे 'तुकबंदी' कहा करते थे। वकालतकी परीक्षा देनेकी तैयारीके लिये जब पण्डित मालवीयजीने अवकाश ग्रहण किया, तब गुप्तजी ही "हिन्दोस्थान" के सम्पादकीय विभागके मुखिया रहे। प्रायः दो वर्ष उक्त पत्रसे उनका सम्बन्ध रहा। पश्चात् पत्रके स्वामी राजा साहबके विचारसे वे ब्रिटिश गवर्नमेंटके बिरुद्ध बहुत कड़ा लिखनेवाले समझे गये और इसलिये उनको हटना पड़ा। सन् १९६२ ई० में गुप्तजी पण्डित अमृतलाल चक्रवर्तीजी की प्रधानतामें “हिन्दी बङ्गवासी" के सहकारी सम्पादक नियुक्त होकर कलकत्ते आये। यहां चक्रवतीजीके अतिरिक्त पिनाहट निवासी स्वर्गीय पं० प्रभुदयाल पांडेजीका भी साथ रहा। प्रायः छै वर्ष तक “हिन्दी बङ्गवासी" में विविध विषयों पर गद्य एवं पद्यात्मक लेख लिखकर आपने हिन्दीके निर्माणमें सहायता पहुँचायी।