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गुप्त धन
 

डाक्टर किचलू का खूबसूरत लताओं से सजा हुआ बँगला रात के वक्त दिन का समाँ दिखा रहा था। फाटक के खम्भे, वरामदे की मेहराबें, सरो के पेड़ों की कतारें सब विजली के बल्बों से जगमगा रही थीं। इन्सान की बिजली की कारीगरी अपना रंगारंग जादू दिखा रही थी। दरवाजे पर शुभागमन का बन्दनवार, पेड़ों पर रंग-बिरंगे पक्षी, लताओं में खिले हुए फूल, यह सव इसी बिजली की रोशनी के जलवे हैं। इसी सुहानी रोशनी में शहर के रईस इठलाते फिर रहे हैं। अभी नाटक शुरू होने में कुछ देर है । मगर उत्कण्ठा लोगों को अधीर करने लगी है। डाक्टर किचलू दरवाजे पर खड़े मेहमानों का स्वागत कर रहे हैं। आठ बजे होंगे कि बाबू अक्षय- कुपार बड़ी आन-बान के साथ अपनी फ़िटन से उतरे। डाक्टर साहब चौंक पड़े, यह आज गूलर में कैसे फूल लग गये। उन्होंने बड़े उत्साह से आगे बढ़ कर बाबू साहव का स्वागत किया और सर से पांव तक उन्हें गौर से देखा। उन्हें कभी खयाल भी न हुआ था कि वाबू अक्षयकुमार ऐसे सुन्दर सजीले कपड़े पहने हुए गवरू नौजवान वन सकते हैं। कायाकल्प का स्पष्ट उदाहरण आंखों के सामने खड़ा था।

अक्षय बाबू को देखते ही इधर-उधर से लोग आकर उनके चारों ओर जमा हो गये । हर शख्स हैरत से एक-दूसरे का मुंह तकता था। होंठ रूमाल की आड़ ढूँढ़ने लगे, आँखें सरगोशियां करने लगीं। हर शख्स ने गैरमामूली तपाक से उनका मिज़ाजपूछ।। शरावियों की मजलिस और पीने की सनाही करनेवाले हज़रते बाइज की तशरीफ़ादरी का नज़ारा पेश हो गया।

अक्षय वा बहुत झेंप रहे थे। उनकी आंखें ऊपर को न उठती थीं। इसलिए जब मिज़ाजपुर्सियों का तूफ़ान दूर हुआ तो उन्होंने अपनी हरे कपड़ीवाली स्त्री की तलाश में चारों तरफ़ एक निगाह दौड़ायी और दिल में कहा---यह शोहदे हैं, मसखरे, मगर अभी-अभी उनकी आंखें खुली जाती हैं। मैं दिखा दूंगा कि मुझ पर भी सुन्दरियों की दृष्टि पड़ती है। ऐसी सुन्दरियां भी हैं जो सच्चे दिल से मेरे मिजाज की कैफियत पूछती हैं और जिनसे अपना दर्दे दिल कहने में मैं भी रंगीन-बयान हो सकता हूँ। मगर उस हरे कपड़ोंवाली प्रेमिका का कहीं पता न था। निगाहें. चारों तरफ से घूम-घामकर नाकाम वापस आयीं।

आव घंटे के बाद नाटक शुरू हुआ। बाबू साहब निराश भाव से पैर उठाते हुए थियेटर हाल में गये और कुर्सी पर बैठ गये। बैठ क्या गये, गिर पड़े। पर्दा उठा। शकुन्तला अपनी दोनों सखियों के साथ सिर पर घड़ा रखे पौदों को सींचती हुई दिखाई