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गुप्त धन
 

की ताकत से बाहर है। मेरी जान, मैं कल कचहरी न गया, और कई मुक़दमे हाथ से खोये। मगर तुम्हारे दर्शन से आत्मा को जो आनन्द मिल रहा है, उस पर मैं अपनी जान भी न्योछावर कर सकता हूँ। मुझे अब धैर्य नहीं है । प्रेम की आग ने संयम और धैर्य को जलाकर खाक कर दिया है। तुम्हें अपने हुस्न के दीवाने से यह पर्दा करना शोभा नहीं देता। शमा और परवाना में पर्दा कैसा । ऐ रूप की खान और ऐ सौन्दर्य की आत्मा ! तेरी मुहब्बत भरी बातों ने मेरे दिल में आरजुओं का तूफान पैदा कर दिया है । अब यह दिल तुम्हारे ऊपर न्योछावर है और यह जान तुम्हारे चरणों पर अर्पित है।

यह कहते हुए बाबू अक्षयकुमार ने आशिकों जैसी ढिठाई से आगे बढ़कर उस हरित-वसना सुन्दरी का धूंघट उठा दिया और हेमवती को मुस्कराते देखकर बेअस्तियार मुंह से निकला, अरे! और फिर कुछ मुँह से न निकला। ऐसा मालूम हुआ कि जैसे आंखों के सामने से पर्दा हट गया। बोले—यह सब तुम्हारी शरारत थी?

सुन्दर, हँसमुख हेमवती मुस्करायी और कुछ जवाब देना चाहती थी, मगर बाबू अक्षयकुमार ने उस वक्त ज्यादा सवाल-जवाब का मौका न देखा। बहुत लज्जित होते हुए बोले-हेमवती, अब मुंह से कुछ मत कहो, तुम जीतीं और मैं हार गया। यह हार कभी न भूलेगी।

-जमाना, मई-जून १९१२