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राजहठ
 

दशहरे के दिन थे, अचलगढ़ में उत्सव की तैयारियां हो रही थीं। दरबारे आम में राज्य के मंत्रियों के स्थान पर अप्सराएं शोभायमान थीं। धर्मशालों और सरायों में घोड़े हिनहिना रहे थे। रियासत के नौकर क्या छोटे, क्या बड़े, रसद पहुंचाने के बहाने से दरबारे आम में जमे रहते थे। किसी तरह हटाये न हटते थे। दरबारे खास में पंडित और पुजारी और महन्त लोग आसन जमाये पाठ करते हुए नजर आते थे। वहां किसी राज्य के कर्मचारी की शकल न दिखायी देती थी। घी और पूजा की सामग्री न होने के कारण सुबह की पूजा शाम को होती थी। रसद न मिलने की वजह से पंडित लोग हवन के घी और मेवों को भोग के अग्निकुण्ड में डालते थे। दरवारे आम में अंग्रेजी प्रबन्ध था और दरबारे खास में राज्य का ।

राजा देवमल बड़े हौसलेमन्द रईस थे। इस वार्षिक आनन्दोत्सव में वह जी खोलकर रुपया खर्च करते। जिन दिनों अकाल पड़ा, राज्य के आधे आदमी भूखों तड़पकर मर गये। बुखार, हैजा और प्लेग में हजारों आदमी हर साल मृत्यु का ग्रास बन जाते थे । राज्य निर्धन था इसलिए न वहां पाठशालाएं थीं, न चिकित्सालय, त सड़कें। वरसात में रनिवास दलदल हो जाता और अँधेरी रातों में सरेशाम से घरों के दरवाजे बन्द हो जाते । अँधेरी सड़कों पर चलना जान जोखिम था। यह सब और इनसे भी ज्यादा कष्टप्रद बातें स्वीकार थीं मगर यह कठिन था, असम्भव था कि दुर्गा देवी का वार्षिक आनन्दोत्सव न हो। इससे राज्य की शान में बट्टा लगने का भय था। राज्य मिट जाय, महलों की ईंटें बिक जायें मगर यह उत्सद ज़रूर हो। आसपास के राजे-रईस आमंत्रित होते, उनके शामियानों से मीलों तक संगमरमर का एक शहर बस जाता, हफ्तों तक खूब चहल-पहल धूम-धाम रहती। इसी की बदौलत अचलगढ़ का नाम अटल हो गया था।

मगर कुंवर इन्दरमल को राजा साहब की इन मस्ताना कार्रवाइयों में बिलकुल आस्था न थी। वह प्रकृति से एक बहुत गम्भीर और सीधा-सादा नव युवक था।