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गुप्त धन
 

राजकुमार ने इधर पीठ फेरी, उधर राजा साहब ने फिर अप्सराओं को बुलाया और फिर चित्त को प्रफुल्लित करनेवाले गानों की आवाजें गूंजने लगीं। उनके संगीत- प्रेम की नदी कभी इतने जोर-शोर से न उमड़ी थी, वाह वाह की बाढ़ आयी हुई थी, तालियों का शोर मचा हुआ था और सुर की किश्ती उस पुरशोर दरिया में हिंडोले की तरह झूल रही थी।

यहां तो नाच-गाने का हंगामा गरम था और रनिवास में रोने-पीटने का। रानी भानकुंवर दुर्गा की पूजा करके लौट रही थीं कि एक लौंडी ने आकर यह मन्तिक समाचार दिया। रानी ने आरती का थाल जमीन पर पटक दिया। वह का व्रत रखती थीं। मृगछाले पर सोती और दूध का आहार करती थीं। पाँव थराये, जमीन पर गिर पड़ीं। मुरझाया हुआ फूल हवा के झोंके को न सह सका । चेरियां सम्हल गयीं और रानी के चारों तरफ गोल बांधकर छाती और सिर पीटने लगीं! कोहराम मच गया। आंखों में आंसू न सही, आंचलों से उनका पर्दा छिपा हुआ था, मगर गले में आवाज़ तो थी। इस वक्त उसी की जरूरत थी। उसी की बुलन्दी और गरज' में इस समय भाग्य की झलक छिपी हुई थी।

लौंडियां तो इस प्रकार स्वामिभक्ति का परिचय देने में व्यस्त थीं और भानकुंवर अपने खयालों में डूबी हुई थी। कुंवर से ऐसी बेअदबी क्योंकर हुई, यह खयाल में नहीं आता। उसने कभी मेरी बातों का जवाब नहीं दिया, जरूर राजा की ज्यादती है।

उसने इस नाच-रंग का विरोध किया होगा, किया ही चाहिए। उन्हें क्या, जो कुछ बनेगी-बिगड़ेगी उसके जिम्मे लगेगी। यह गुस्सेवर हैं ही। झल्ला गये होंगे । उसे सख्त-सुस्त कहा होगा। बात की उसे कहां बर्दाश्त, यही तो उसमें बड़ा ऐव है, रूठकर कहीं चला गया होगा। मगर गया कहां ? दुर्गा! तुम मेरे लाल की रक्षा करना, मैं उसे तुम्हारे सुपुर्द करती हूँ। अफ़सोस, यह राजब हो गया। मेरा राज्य सूना हो गया और इन्हें अपने राग-रंग की सूझी हुई है। यह सोचते-सोचते रानी के शरीर में कँपकँपी आ गयी, उठकर गुस्से से कांपती हुई वह बेधड़क नाच-गाने की महफ़िल की तरफ़ चली। करीब पहुंची तो सुरीली ताने सुनायी दीं। एक बरछी- सी जिगर में चुभ गयी। आग पर तेल पड़ गया ।

रानी को देखते ही गानेवालियों में एक हलचल-सी मच गयी। कोई किसी कोने जा छिपी, कोई गिरती-पड़ती दरवाजे की तरफ़ भागी। राजा साहब ने रानी