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राजहठ
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की तरफ़ घूरकर देखा । भयानक गुस्से का शोला सामने दहक रहा था। उनकी त्योरियों पर भी बल पड़ गये । खून बरसाती हुई आंखें आपस में मिलीं। मोम ने लोहे का सामना किया।

रानी थर्रायी हुई आवाज़ में बोली-मेरा इन्दरमल कहां गया? यह कहते- कहते उसकी आवाज़ रुक गयी और होंठ कांपकर रह गये ।

राजा ने बेरुखी से जवाब दिया--मैं नहीं जानता।

रानी सिसकियां भरकर बोली-आप नहीं जानते कि वह कल तीसरे पहर से गायब है और उसका कहीं पता नहीं ? आपकी इन जहरीली नागिनों ने यह विष बोया है। अगर उसका बाल भी बांका हुआ तो उसके ज़िम्मेदार आप होंगे।

राजा ने तुर्शी से कहा-वह बड़ा घमण्डी और विनकहा हो गया है, मैं उसका मुंह नहीं देखना चाहता।

रानी कुचले हुए साँप की तरह ऐंठकर बोली--राजा; तुम्हारी जवान से यह बातें निकल रही हैं ! हाय मेरा लाल, मेरी आंखों की पुतली, मेरे जिगर का टुकड़ा, मेरा सब कुछ यों अलोप हो जाय और इस बेरहम का दिल ज़रा भी न पसीजे ! मेरे घर में आग लग जाय और यहां इन्द्र का अखाड़ा सजा रहे ! मैं खून के आंसू रोऊ और यहाँ खुशी के राग अलापे जायं !

राजा के नथने फड़कने लगे, कड़ककर बोले-रानी भान कुंवर, अब जबान बन्द करो। मैं इससे ज्यादा नहीं सुन सकता। बेहतर होगा कि तुम महल में चली जाओ।

रानी ने बिफरी हुई शेरनी की तरह गर्दन उठाकर कहा-हां, मैं खुद जाती हूँ। मैं हुजूर के ऐश में विघ्न नहीं डालना चाहती, मगर आपको इसका भुगतान करना पड़ेगा। अचलगढ़ में या तो भान कुंवर रहेगी या आपकी ज़हरीली, विषैली परियां!

राजा पर इस धमकी का कोई असर न हुआ। गैंडे की ढाल पर कच्चे लोहे का असर क्या हो सकता है ! जी में आया कि साफ़-साफ़ कह दें, भान कुंवर चाहे रहे या न रहे यह परियां ज़रूर रहेंगी, लेकिन अपने को रोककर बोले-तुमको अख्तियार है, जो ठीक समझो वह करो।

रानी कुछ कदम चलकर फिर लौटी और बोली-त्रिया-हठ रहेगी या राजहठ?