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राजहठ
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आ गया और वह बेताब होकर उठकर टहलने लगे। बेशक, मैं उसके साथ बेरहमी से पेश आया। मां को अपनी औलाद ईमान से भी ज्यादा प्यारी होती है और उसका रुष्ट होना उचित था मगर इन धमकियों के क्या माने? इसके सिवा कि वह रूठकर मैके चली जाय और मुझे बदनाम करे, वह मेरा और क्या कर सकती है ? अल्लमन्दों ने कहा है कि औरत की जात बेवफ़ा होती है, वह मीठे पानी की चंचल, चुलबुली- चमकीली धारा है, जिसकी गोद में चहकती और चिमटती है उसे बालू का ढेर बनाकर छोड़ती है। यही भान कुंवर है जिसकी नाज़बरदारियां मुहब्बत का दर्जा रखती हैं। आह, क्या वह पिछली बातें भूल जाऊं! क्या उन्हें किस्सा समझकर दिल को तसकीन दूं।

इसी बीच में एक लौंडी ने आकर कहा कि महारानी ने हाथी मंगवाया है और न जाने कहां जा रही हैं। कुछ बताती नहीं। राजा ने सुना और मुँह फेर लिया।

 

शहर इन्दौर से तीन मील उत्तर की तरफ घने पेड़ों के बीच में एक तालाब है जिसके चांदी-जैसे चेहरे से काई का हरा मखमली बूंघट कभी नहीं उठता । कहते हैं किसी ज़माने में उसके चारों तरफ़ पक्के घाट बने हुए थे। मगर इस वक्त तो सिर्फ़ यह जनश्रुति बानी थी जो कि इस दुनिया में अक्सर ईंट-पत्थर की यादगारों से ज्यादा टिकाऊ हुआ करती है।

तालाब के पूरब में एक पुराना मन्दिर था, उसमें शिव जी राख की धूनी रमाये खामोश बैठे हुए थे। अबाबीलें और जंगली कबूतर उन्हें अपनी मीठी बोलियां सुनाया करते । मगर उस वीराने में भी उनके भक्तों की कमी न थी। मन्दिर के अन्दर भरा हुआ पानी और बाहर बदबूदार कीचड़, इस भक्ति के प्रमाण थे। वह मुसाफ़िर जो इस तालाब में नहाता उसके एक लोटे पानी से अपने ईश्वर की प्यास बुझाता था। शिव जी खाते कुछ न थे मगर पानी बहुत पीते थे। उनकी न बुझनेवाली प्यास कभी न बुझती थी।

तीसरे पहर का वक्त था। क्वार की धूप तेज़ थी। कुंवर इन्दरमल अपने हवा की चालवाले घोड़े पर सवार इन्दौर की तरफ़ से आये और एक पेड़ की छाया में । वह बहुत उदास थे। उन्होंने घोड़े को पेड़ से बांध दिया और खुद जीन के ऊपर डालनेवाला कपड़ा बिछाकर लेट रहे। उन्हें अचलगढ़ से निकले आज तीसरा दिन है मगर चिन्ताओं ने पलक तक नहीं झपकने दी। रानी भानकुंवर उसके दिल ठहर गये