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गुप्त धन
 

से एक पल के लिए भी दूर न होती थी। इस वक्त ठण्डी हवा लगी तो नींद आ गयी। सपने में देखने लगा कि जैसे रानी आयी हैं और उसे गले लगाकर रो रही हैं। चौंककर आंखें खोली तो रानी सचमुच सामने खड़ी उसकी तरफ आंसू भरी आंखों से ताक रही थीं। वह उठ बैठा और मां के पैरों को चूमा । मगर रानी ने ममता से उठाकर गले लगा लेने के बजाय अपने पांव हटा लिये और मुंह से कुछ न बोली।

इन्दरमल ने कहा-मां जी, आप मुझसे नाराज़ हैं ?

रानी ने रुखाई से जवाब दिया-~~-मैं तुम्हारी कौन होती हूँ !

कुंवर--आपको यक़ीन आये न आये, मैं जबसे अचलगढ़ से चला हूं एक पल के लिए भी आपका खयाल दिल से दूर नहीं हुआ। अभी आपही को सपने में देख रहा था।

इन शब्दों ने रानी का गुस्सा ठंडा किया। कुंवर की ओर से निश्चिन्त होकर अब बह राजा का ध्यान कर रही थी। उसने कुँवर से पूछा-तुम तीन दिन कहां रहे ?

कुंवर ने जवाब दिया-क्या बताऊं, कहां रहा । इन्दौर चला गया था। वहां पोलिटिकल एजेण्ट से सारी कथा कह सुनायी।

रानी ने यह सुना तो माथा पीटकर बोली-तुमने ग़ज़ब कर दिया । आग लगा दी।

इन्दरमल-क्या करूं, खुद पछताता हूं, उस वक्त यही धुन सवार थी ।

रानी—मुझे जिन बातों का डर था वह सब हो गयीं। अब कौन मुंह लेकर अचलगढ़ जायंगे।

इन्दरमल--मेरा जी चाहता है कि अपना गला घोंट लूं ।

रानी-गुस्सा बुरी बला है। तुम्हारे आने के बाद मैंने रार मचाई और कुछ यही इरादा करके इन्दौर जा रही थी, रास्ते में तुम मिल गये !

यह बातें हो ही रही थीं कि सामने से बहलियों और साँनियों की एक लम्बी कतार आती हुई दिखायी दी। साँनियों पर मर्द सवार थे। सुरमा-लगी आंखोंवाले, पेचदार जुल्फोंवाले । बहलियों में हुस्न के जलवे थे। शोख निगाहें, बेवड़क चितवनें, यह उन नाच-रंग वालों का काफिला था जो अचलगढ़ से निराश और खिन्न चला आता था। उन्होंने रानी की सवारी देखी और कुंवर का घोड़ा पहचान लिया । घमण्ड से सलाम किया मगर बोले नहीं । जब वह दूर निकल गये तो कुंवर ने ज़ोर से कहक़हा मारा। यह विजय का नारा था। tek