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गुप्त धन
 

बनकर दे सम्मान के पद से गिर जाती हैं! अपनी रोजी हासिल करना तो उसके लिए कोई ऐसा मुश्किल काम न था। किसी सेठ-साहूकार के यहां मुनीम बन सकता था, किसी कारखाने की तरफ से एजेण्ट हो सकता था, मगर उसके कन्धे पर एक भारी जुआ रक्खा हुआ था, उसे क्या करे। एक बड़े सेठ की लड़की जिसने लाड़- प्यार में परवरिश पायी, उससे यह कंगाली की तकलीफें क्योंकर झेली जायंगी। क्या मक्खनलाल की लाड़ली बेटी एक ऐसे आदमी के साथ रहना पसन्द करेगी जिसे रात की रोटी का भी ठिकाना नहीं! मगर इस फिक्र में अपनी जान क्यों खपाऊँ। मैंने अपनी मर्जी से शादी नहीं की। मैं बराबर इनकार करता रहा। सेठ जी ने ज़बर्दस्ती मेरे पैरों में बेड़ी डाली है। अब वही इसके ज़िम्मेदार हैं। मुझसे कोई वास्ता नहीं। लेकिन जब उसने दुवारा ठण्डे दिल से इस मसले पर गौर किया तो बचाव की कोई सूरत नजर न आयी। आखिरकार उसने यह फैसला किया कि पहले नागपुर चलूं, जरा उन महारानी के तौर-तरीके को देखू, बाहर ही बाहर उनके स्वभाव की, मिजाज की जांच करूं। उस वक्त तय करूंगा कि मुझे क्या करना चाहिए। अगर रईसी की बू उनके दिमाग़ से निकल गयी है और मेरे साथ रूखी रोटियां खाना उन्हें मंजूर है, तो इससे अच्छा फिर और क्या, लेकिन अगर वह अमीरी ठाट-बाट के हाथों बिकी हुई हैं तो मेरे लिए रास्ता साफ है। फिर मैं हूँ और दुनिया का ग़म। ऐसी जगह जाऊं जहां किसी परिचित की सूरत सपने में भी न दिखायी दे। गरीवी की जिल्लत नहीं रहती, अगर अजनबियों में जिन्दगी बसर की जाय। यह जानने-पहचाननेवालों को कनखियां और कनबतियां हैं जो गरीबी को यन्त्रणा बना देती हैं। इस तरह दिल में जिन्दगी का नकशा बनाकर मगनदास अपनी मर्दाना हिम्मत के भरोसे पर नागपुर की तरफ चला, उस मल्लाह की तरह जो किश्ती और पाल के बगैर नदी की उमड़ती हुई लहरों में अपने को डाल दे।

शाम के वक्त सेठ मक्खनलाल के सुन्दर बागीचे में सूरज की पीली किरणें मुरझाये हुए फूलों से गले मिलकर बिदा हो रही थीं। बाग़ के बीच में एक पक्का कुआँ था और एक मौलसिरी का पेड़। कुएँ के मुंह पर अँधेरे की नीली-सी नक़ाब थी, पेड़ के सिर पर रोशनी की सुनहरी चादर। इसी पेड़ के नीचे एक बुढ़िया मालिन बैठी हुई फूलों के हार और गजरे गूंध रही थी। इतने में एक नौजवान थका-मांदा कुएँ पर आया और लोटे से पानी भरकर पीने के बाद जगत पर बैठ गया। मालिन