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गुप्त धन
 

सागर-ओ-मीना के दौर चलने लगे। संयम का कमजोर अहाता इन विषय-वासना के बटमारों को न रोक सका। हाँ, अब इस पीने-पिलाने में कुछ परदा रखा जाता है और ऊपर से थोड़ी-सी गम्भीरता बनाये रखी जाती है। साल भर इसी बहार में गुजरा। नवेली बहू घर में कुढ़-कुढ़कर मर गयी। तपेदिक ने उसका काम तमाम कर दिया। तब दूसरी शादी हुई। मगर इस स्त्री में नानकचन्द की सौन्दर्य-प्रेमी आँखों के लिए कोई आकर्षण न था। इनका भी वही हाल हुआ। कभी बिना रोये कौर मुंह में नहीं दिया। तीन साल में चल बसीं। तब तीसरी शादी हुई। यह औरत बहुत सुन्दर थी, अच्छे आभूषणों से सुसज्जित। उसने नानकचन्द के दिल में जगह कर ली। एक बच्चा भी पैदा हुआ और नानकचन्द गार्हस्थिक आनन्दों से परिचित होने लगा, दुनिया के नाते-रिश्ते अपनी तरफ खींचने लगे। मगर प्लेग के एक ही हमले ने सारे मंसूबे धूल में मिला दिये। पतिप्राणा स्त्री मरी, तीन बरस का प्यारा लड़का हाथ से गया और दिल पर ऐसा दाग छोड़ गया जिसका कोई मरहम न था। उच्छृखलता भी चली गयी, ऐयाशी का भी खात्मा हुआ। दिल पर रंजोगम छा गया और तबीयत संसार से विरक्त हो गयी।

जीवन की दुर्घटनाओं में अक्सर बड़े महत्व के नैतिक पहलू छिपे हुआ करते हैं। इन सदमों ने नानकचन्द के दिल में मरे हुए इन्सान को जगा दिया। जब वह निराशा के यातनापूर्ण अकेलेपन में पड़ा हुआ इन घटनाओं को याद करता तो उसका दिल रोने लगता और ऐसा मालूम होता कि ईश्वर ने मुझे मेरे पापों की सज़ा दी है। धीरे-धीरे यह खयाल उसके दिल में मजबूत हो गया—उफ् मैंने उस मासूम औरत पर कैसा जुल्म किया। कैसी बेरहमी की! यह उसी का दण्ड है। यह सोचते-सोचते ललिता की मासूम तस्वीर उसकी आँखों के सामने खड़ी हो जाती और प्यारे मुखड़ेवाली कमला अपने मरे हुए सौतेले भाई के साथ उसकी तरफ प्यार से दौड़ती हुई दिखायी देती। इस लम्बी अवधि में नानकचन्द को ललिता की याद तो कई बार आयी थी मगर भोग-विलास, पीने-पिलाने की उन कैफियतों ने कभी उस खयाल को जमने न दिया। एक धुंधला सा सपना दिखायी दिया और विखर गया। मालूम नहीं, दोनों मर गयीं या जिन्दा हैं। अफसोस! ऐसी बेकसी की हालत में छोड़कर मैंने उनकी सुध तक न ली। उस नेकनामी पर धिक्कार है, जिसके लिए ऐसी निर्दयता की कीमत देनी पड़े। यह खयाल आखिर