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मनावन

बाबू दयाशंकर उन लोगों में थे जिन्हें उस वक्त तक सोहबत का मज़ा नहीं मिलता जब तक कि वह प्रेमिका की जबान की तेज़ी का मज़ा न उठायें। रूठे को मनाने में उन्हें बड़ा आनन्द मिलता। फिरी हुई निगाहें कभी-कभी मुहब्बत के नशे की मतवाली आँखों से भी ज्यादा मोहक जान पड़तीं। कभी कभी प्रेमिका की बेरुखी और तुर्शियाँ जोश और उमंग से भी ज्यादा आकर्षक लगतीं। झगड़ों में मिलाप से ज्यादा मज़ा आता। पानी में हलके हलके झकोले कैसा समाँ दिखा जाते हैं। जब तक दरिया में धीमी-धीमी हलचल न हो सैर का लुत्फ नहीं।

अगर बाबू दयाशंकर को इन दिलचस्पियों के कम मौके मिलते थे तो यह उनका क़सूर न था। गिरिजा स्वभाव से बहुत नेक और गम्भीर थी, तो भी चूँकि उसे अपने पति की रुचि का अनुभव हो चुका था इसलिए वह कभी-कभी अपनी तबीयत के खिलाफ सिर्फ उनकी खातिर से उनसे रूठ जाती थी। मगर यह बे-नींव की दीवार हवा का एक झोंका भी न सम्हाल सकती। उसकी आँखें, उसके होंठ और उसका दिल यह बहुरूपिये का खेल ज्यादा देर तक न-चला सकते। आसमान पर घटायें आती मगर सावन की नहीं, कुआर की। वह डरती, कहीं ऐसा न हो कि हँसी-हँसी में रोना आ जाय। आपस की बदमज़गी के खयाल से उसकी जान निकल जाती थी मगर इन मौकों पर बाबू साहब को जैसी-जैसी रिझानेवाली बातें सूझतीं वह काश विद्यार्थी जीवन में सूझी होतीं तो वह कई साल तक कानून से सिर मारने के बाद भी मामूली क्लर्क न रहते।

दयाशंकर को क़ौमी जलसों से बहुत दिलचस्पी थी। इस दिलचस्पी की बुनियाद उसी ज़माने में पड़ी जब वह कानून की दरगाह के मुजाविर थे और वह अब तक कायम थी। रुपयों की थैली ग़ायब हो गयी थी मगर कंधों में दर्द मौजूद था। इस साल कांफ्रेन्स का जलसा सतारा में होनेवाला था। नियत तारीख से