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मनावन
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सतारा में बड़ी धूमधाम थी। दयाशंकर गाड़ी से उतरे तो वर्दीपोश वालंटियरों ने उनका स्वागत किया। एक फिटन उनके लिए तैयार खड़ी थी। उस पर बैठकर वह कांफ्रेन्स पंडाल की तरफ चले। दोनों तरफ झंडियाँ लहरा रही थीं। दरवाज़े पर बन्दनवारें लटक रही थीं। औरतें अपने झरोखों से और मर्द बरामदों में खड़े हो-होकर खुशी से तालियाँ बजाते थे। इस शान-शौकत के साथ वह पंडाल में पहुँचे और एक खूबसूरत खेमे में उतरे। यहाँ सब तरह की सुविधाएँ एकत्र थीं। दस बजे कांफ्रेन्स शुरू हुई। वक्ता अपनी-अपनी भाषा के जलवे दिखाने लगे। किसी के हँसी-दिल्लगी से भरे हुए चुटकुलों पर वाह-वाह की धूम मच गयी, किसी की आग बरसानेवाली तकरीर ने दिलों में जोश की एक लहर-सी पैदा कर दी। विद्वत्तापूर्ण भाषणों के मुकाबले में हँसी-दिल्लगी और बात कहने की खूबी को लोगों ने ज्यादा पसन्द किया। श्रोताओं को उन भाषणों में थियेटर के गीतों का-सा आनन्द आता था।

कई दिन तक यही हालत रही और भाषणों की दृष्टि से कांफ्रेन्स को शानदार कामयाबी हासिल हुई। आखिरकार मंगल का दिन आया। बाबू साहब वापसी की तैयारियाँ करने लगे। मगर कुछ ऐसा संयोग हुआ कि आज उन्हें मजबूरन ठहरना पड़ा। बम्बई और यू॰ पी॰ के डेलीगेटों में एक हाकी मैच की ठहर गयी। बाबू दयाशंकर हाकी के बहुत अच्छे खिलाड़ी थे। वह भी टीम में दाखिल कर लिये गये थे। उन्होंने बहुत कोशिश की कि अपना गला छुड़ा लूँ मगर दोस्तों ने इनकी आनाकानी पर बिलकुल ध्यान न दिया। एक साहब जो ज्यादा बेतकल्लुफ थे, बोले—आखिर तुम्हें इतनी जल्दी क्यों है? तुम्हारा दफ्तर अभी हफ़्ता भर बंद है। बीवी साहबा की नाराजगी के सिवा मुझे इस जल्दबाज़ी का कोई कारण नहीं दिखायी पड़ता। दयाशंकर ने जब देखा कि जल्दी ही मुझपर बीवी का गुलाम होने की फबतियाँ कसी जानेवाली हैं, जिससे ज्यादा अपमानजनक बात मर्द की शान में कोई दूसरी नहीं कही जा सकती, तो उन्होंने बचाव की कोई सूरत न देखकर वापसी मुल्तवी कर दी और हाकी में शरीक हो गये। मगर दिल में यह पक्का इरादा कर लिया कि शाम की गाड़ी से जरूर चले जायेंगे, फिर चाहे कोई बीवी का गुलाम नहीं, बीवी के गुलाम का बाप कहे, एक न मानेंगे।

खैर पाँच बजे खेल शुरू हुआ। दोनों तरफ के खिलाड़ी बहुत तेज़ थे जिन्होंने हाकी खेलने के सिवा ज़िन्दगी में और कोई काम ही नहीं किया। खेल बड़े जोश और