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गुप्त धन
 

सरगर्मी से होने लगा। कई हज़ार तमाशाई जमा थे। उनकी तालियाँ और बढ़ावे खिलाड़ियों पर मारू बाजे का काम कर रहे थे और गेंद किसी अभागे की किस्मत की तरह इधर-उबर ठोकरें खाता फिरता था। दयाशंकर के हाथों की तेज़ी और सफाई, उनकी पकड़ और बेऐब निशानेबाजी पर लोग हैरान थे, यहाँ तक कि जब वक्त खत्म होने में सिर्फ एक मिनट बाकी रह गया था और दोनों तरफ के लोग हिम्मतें हार चुके थे तो दयाशंकर ने गेंद लिया और बिजली की तरह विरोधी पक्ष के गोल पर पहुँच गये। एक पटाखे की आवाज़ हुई, चारों तरफ से गोल का नारा बुलन्द हुआ। इलाहाबाद की जीत हुई और इस जीत का सेहरा दयाशंकर के सिर था—जिसका नतीजा यह हुआ कि बेचारे दयाशंकर को उस वक्त भी रुकना पड़ा और सिर्फ इतना ही नहीं, सतारा अमेचर क्लब की तरफ से इस जीत की बधाई में एक नाटक खेलने का प्रस्ताव हुआ जिससे बुध के रोज़ भी रवाना होने की कोई उम्मीद बाक़ी न रही। दयाशंकर ने दिल में बहुत पेचोताब खाया मगर ज़बान से क्या कहते। बीवी का गुलाम कहलाने का डर ज़वान बन्द किये हुए था। हालाँकि उनका दिल कह रहा था कि अब को देवी रूठेंगी तो सिर्फ खुशामदों से न मानेंगी।

बाबू दयाशंकर वादे के रोज़ के तीन दिन बाद मकान पर पहुँचे। सतारा से गिरिजा के लिए कई अनूठे तोहफ़े लाये थे। मगर उसने इन चीजों को कुछ इस तरह देखा कि जैसे उनसे उसका जी भर गया है। उसका चेहरा उतरा हुआ था और होंठ सूखे थे। दो दिन से उसने कुछ नहीं खाया था। अगर चलते वक्त दयाशंकर की आँखों से आँसू की चन्द बूँदें टपक पड़ी होतीं या कम से कम चेहरा कुछ उदास और आवाज़ कुछ भारी हो गयी होती तो शायद गिरिजा उनसे न रूठती। आँसुओं की चन्द बूँदें उसके दिल में इस खयाल को तरो-ताज़ा रखतीं कि उनके न आने का कारण चाहे और कुछ हो निष्ठुरता हरगिज़ नहीं है। शायद हाल पूछने के लिए उसने तार दिया होता और अपने पति को अपने सामने खैरियत से देखकर वह वरबस उनके सीने से जा चिमटती और देवताओं की कृतज्ञ होती। मगर आँखों की वह बेमौक़ा कंजूसी और चेहरे की वह निष्ठुर मुस्कान इस वक्त उसके पहलू में खटक रही थी। दिल में यह खयाल जम गया था कि मैं चाहे इनके लिए मर भी मिटूँ मगर इन्हें मेरी परवाह नहीं है। दोस्तों का आग्रह और ज़िद केवल बहाना है। कोई ज़बरदस्ती किसी को रोक नहीं सकता। खूब! मैं तो रात की रात बैठकर काटूँ और वहाँ मज़े उड़ाये जायँ!