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मनावन
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बाबू दयाशंकर को रूठों के मनाने में विशेष दक्षता थी और इस मौके पर उन्होंने कोई बात, कोई कोशिश उठा नहीं रक्खी। तोहफ़े तो लाये थे मगर उनका जादू न चला। तब हाथ जोड़कर एक पैर से खड़े हुए, गुदगुदाया, तलुवे सहलाये, कुछ शोखी और शरारत की, दस बजे तक इन्हीं सब बातों में लगे रहे। इसके बाद खाने का वक्त आया! आज उन्होंने रूखी रोटियाँ बड़े शौक से और मामूली से कुछ ज्यादा खायीं—गिरिजा आज हफ्ते भर के बाद रोटियाँ नसीब हुई हैं, सतारे में रोटियों को तरस गये। पूड़ियाँ खाते-खाते आँतों में बायगोले पड़ गये। यकीन मानो गिरिजन, वहाँ कोई आराम न था, न कोई सैर, न कोई लुत्फ। सैर और लुत्फ तो महज़ अपने दिल की कैफियत पर मुनहसर है। वेफिक्री हो तो चटियल मैदान में बाग़ का मज़ा आता है और तबीयत को कोई फिक्र हो तो बाग़ वीराने से भी ज्यादा उजाड़ मालूम होता है। कम्बख्त दिल तो हरदम यहीं धरा रहता था, वहाँ मज़ा क्या खाक आता। तुम चाहे इन बातों को केवल बनावट समझ लो, क्योंकि मैं तुम्हारे सामने दोषी हूँ और तुम्हें अधिकार है कि मुझे झूठा, मक्कार, दग़ाबाज़, बेवफ़ा, बात बनानेवाला जो चाहे समझ लो, मगर सच्चाई यही है जो मैं कह रहा हूँ। मैं जो अपना वादा पूरा नहीं कर सका, उसका कारण दोस्तों की ज़िद थी।

दयाशंकर ने रोटियों की खूब तारीफ़ की क्योंकि पहले कई बार यह तरकीब फ़ायदेमन्द साबित हुई थी, मगर आज यह मन्त्र भी कारगर न हुआ और गिरिजा के तेवर बदले ही रहे।

तीसरे पहर दयाशंकर गिरिजा के कमरे में गये और पंखा झलने लगे; यहाँ तक कि गिरिजा झुँझलाकर बोल उठी—अपनी नाज़बरदारियाँ अपने ही पास रखिये। मैंने हुजूर से भर पाया। मैं तुम्हें पहचान गयी, अब धोखा नहीं खाने की। मुझे न मालूम था कि मुझसे आप यों दग़ा करेंगे। ग़रज़ जिन शब्दों में बेवफ़ाइयों और निष्ठुरताओं की शिकायतें हुआ करती हैं वह सब इस वक़्त गिरिजा ने खर्च कर डाले।

शाम हुई। शहर की गलियों में मोतिये और बेले की लपटें आने लगीं। सड़कों पर छिड़काव होने लगा और मिट्टी की सोंधी खुशबू उड़ने लगी। गिरिजा खाना पकाने जा रही थी कि इतने में उसके दरवाज़े पर एक इक्का आकर रुका और उसमें से एक औरत उतर पड़ी। उसके साथ एक महरी थी। उसने ऊपर आकर गिरिजा से कहा—बहू जी, आपकी सखी आ रही हैं।