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गुप्त धन
 

यह सखी पड़ोस में रहनेवाली अहलमद साहब की बीवी थीं। अहलमद साहब बूढ़े आदमी थे। उनकी पहली शादी उस वक़्त हुई थी, जब दूध के दाँत न टूटे थे। दूसरी शादी संयोग से उस ज़माने में हुई जब मुँह में एक दाँत भी बाक़ी न था। लोगों ने बहुत समझाया कि अब आप बूढ़े हुए, शादी न कीजिए, ईश्वर ने लड़के दिये हैं, बहुएँ हैं, आपको किसी बात की तकलीफ़ नहीं हो सकती। मगर अहलमद साहब खुद बुढ्ढे और दुनिया देखे हुए आदमी थे, इन शुभचिंतकों की सलाहों का जवाब व्यावहारिक उदाहरणों से दिया करते थे—क्यों, क्या मौत को बूढ़ों से कोई दुश्मनी है? बूढ़े ग़रीब उसका क्या बिगाड़ते हैं। हम बाग़ में जाते हैं तो मुरझाये हुए फूल नहीं तोड़ते, हमारी आँखें तरो-ताज़ा, हरे-भरे खूबसूरत फूलों पर पड़ती हैं। कभी-कभी गजरे वगैरह बनाने के लिए कलियाँ भी तोड़ ली जाती हैं। यही हालत मौत की है। क्या यमराज को इतनी समझ भी नहीं है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि जवान और बच्चे बूढ़ों से ज्यादा मरते हैं। मैं अभी ज्यों का त्यों हूँ, मेरे तीन जवान भाई, पाँच बहनें, बहनों के पति, तीनों भावजें, चार बेटे, पाँच बेटियाँ, कई भतीजे, सब मेरी आँखों के सामने इस दुनिया से चल बसे। मौत सबको निगल गयी मगर मेरा बाल बाँका न कर सकी। यह ग़लत, बिलकुल ग़लत है कि बूढ़े आदमी जल्द मर जाते हैं। और असल बात तो यह है कि जवान बीवी की ज़रूरत बुढ़ापे में ही होती है। बहुएँ मेरे सामने निकला न चाहें और न निकल सकती हैं, भावजें खुद बूढ़ी हुईं, छोटे भाई की बीवी मेरी परछाईं भी नहीं देख सकती हैं, बहनें अपने-अपने घर हैं, लड़के सीधे मुँह बात नहीं करते। मैं ठहरा बूढ़ा, बीमार पड़े तो पास कौन फटके, एक लोटा पानी कौन दे, देखूँ किसकी आँख से, जी कैसे बहलाऊँ! क्या आत्महत्या कर लूँ! या कहीं डूब मरूँ! इन दलीलों के मुक़ाबिले में किसी की ज़बान न खुलती थी।

ग़रज़ इस नयी अहलमदिन और गिरिजा में कुछ बहनापा-सा हो गया था, कभी-कभी उससे मिलने आ जाया करती थी। अपने भाग्य पर सन्तोष करनेवाली स्त्री थी, कभी शिकायत या रंज की एक बात ज़बान से न निकालती। एक बार गिरिजा ने मज़ाक में कहा था कि बूढ़े और जवान का मेल अच्छा नहीं होता। इस पर वह नाराज़ हो गयी और कई दिन तक न आयी। गिरिजा महरी को देखते ही फ़ौरन आँगन में निकल आयी और गो उसे इस वक्त मेहमान का आना नागवार गुज़रा मगर महरी से बोली—बहन, अच्छी आयीं, दो घड़ी दिल बहलेगा। ज़रा देर में अहलमदिन साहब गहने से लदी हुई, घूँघट निकाले, छमछम करती