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मनावन
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हुई आँगन में आकर खड़ी हो गयीं! गिरिजा ने क़रीब आकर कहा—वाह सखी, आज तो तुम दुलहिन बनी हो। मुझसे पर्दा करने लगी हो क्या! यह कहकर उसने घूँघट हटा दिया और सखी का मुँह देखते ही चौंककर एक क़दम पीछे हट गयी। दयाशंकर ने ज़ोर से कहकहा लगाया और गिरिजा को सीने से लिपटा लिया और विनती के स्वर में बोले—गिरजन, अब मान जाओ, ऐसी खता फिर कभी न होगी। मगर गिरजन अलग हट गयी और रुखाई से बोली—तुम्हारा बहुरूप बहुत देख चुकी, अब तुम्हारा असली रूप देखना चाहती हूँ।

दयाशंकर प्रेम-नदी की हलकी-हलकी लहरों का आनन्द तो ज़रूर उठाना चाहते थे मगर तूफान से उनकी तबीयत भी उतना ही घबराती थी जितना गिरिजा की, बल्कि शायद उससे भी ज्यादा। हृदय-परिवर्तन के जितने मन्त्र उन्हें याद थे वह सब उन्होंने पढ़े और उन्हें कारगर न होते देखकर आखिर उनकी तबीयत को भी उलझन होने लगी। यह वे मानते थे कि बेशक मुझसे खता हुई है मगर खता उनके खयाल में ऐसी दिल जलानेवाली सजाओं के काबिल न थी। मनाने की कला में वह ज़रूर सिद्धहस्त थे मगर इस मौके पर उनकी अक्ल ने कुछ काम न दिया। उन्हें ऐसा कोई जादू नज़र नहीं आता था जो उठती हुई काली घटाओं और ज़ोर पकड़ते हुए झोंकों को रोक दे। कुछ देर तक वह इन्हीं खयालों में खामोश खड़े रहे और फिर बोले—आखिर गिरजन, अब तुम क्या चाहती हो।

गिरिजा ने अत्यन्त सहानुभूतिशून्य बेपरवाही से मुँह फेरकर कहा—कुछ नहीं।

दयाशंकर—नहीं, कुछ तो ज़रूर चाहती हो वर्ना चार दिन तक बिना दाना-पानी के रहने का क्या मतलब! क्या मुझ पर जान देने की ठानी है? अगर यही फैसला है तो बेहतर है तुम यों जान दो और मैं क़ल के जुर्म में फाँसी पाऊँ, किस्सा तमाम हो जाय। अच्छा होगा, बहुत अच्छा होगा, दुनिया की परेशानियों से छुटकारा हो जायगा।

यह मन्तर बिलकुल बेअसर न रहा। गिरिजा आँखों में आँसू भरकर बोली—तुम खामखाह मुझसे झगड़ना चाहते हो और मुझे झगड़े से नफ़रत है। मैं न तुमसे बोलती हूँ और न चाहती हूँ कि तुम मुझसे बोलने की तकलीफ़ गवारा करो। क्या आज शहर में कहीं नाच नहीं होता, कहीं हाकी मैच नहीं है, कहीं शतरंज नहीं बिछी