पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/१४७

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अंधेर

नागपंचमी आयी। साठे के ज़िन्दादिल नौजवानों ने रंग-बिरंगे जाँघिये बनवाये। अखाड़े में ढोल की मर्दाना सदायें गूंजने लगीं। आसपास के पहलवान इकट्ठे हुए और अखाड़े पर तम्बोलियों ने अपनी दुकानें सजायीं क्योंकि आज कुश्ती और दोस्ताना मुकाबले का दिन है। औरतों ने गोबर से अपने आँगन लीपे और गाती-बजाती कटोरों में दूध-चाबल लिये नाग पूजने चलीं।

साठे और पाठे दो लगे हुए मौजे थे। दोनों गंगा के किनारे। खेती में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी इसीलिए आपस में फौजदारियाँ खूब होती थीं। आदिकाल से उनके बीच होड़ चली आती थी। साठेवालों को यह घमण्ड था कि उन्होंने पाठेवालों को कभी सिर न उठाने दिया। उसी तरह पाठेवाले अपने प्रतिद्वन्द्रियों को नीचा दिखलाना ही ज़िन्दगी का सबसे बड़ा काम समझते थे। उनका इतिहास विजयों की कहानियों से भरा हुआ था। पाठे के चरवाहे यह गीत गाते हुए चलते थे—

साठेवाले कायर सगरे पाठेवाले हैं सरदार

और साठे के घोबी गाते—

साठेवाले साठ हाथ के जिनके हाथ सदा तरवार।
उन लोगन के जनम नसाये जिन पाठे मान लीन अवतार॥

ग़रज आपसी होड़ का यह जोश बच्चों में माँ के दूध के साथ दाखिल होता था और उसके प्रदर्शन का सबसे अच्छा और ऐतिहासिक मौक़ा यही नागपंचमी का दिन था। इस दिन के लिए साल भर तैयारियां होती रहती थीं। आज उनमें मार्के की कुश्ती होनेवाली थी। साठे को गोपाल पर नाज़ था, पाठे को बलदेव का गर्रा। दोनों सूरमा अपने-अपने फ़रीक़ की दुआएँ और आरजुएँ लिये हुए अखाड़े में उतरे। तमाशाइयों पर चुम्बक का-सा असर हुआ। मौजे के चौकीदारों ने लट्‌ठ और डण्डों का यह जमघट देखा और मर्दों की अंगारे की तरह लाल आँखें तो पिछले अनुभव के आधार पर बेपता हो गये। इधर अखाड़े में दाँव-पेंच होते रहे। बलदेव