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अंधेर
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नींद की औंधाई दूर हो गयो । लट्ठ कंधे पर रक्खा और मडैया से बाहर निकल आया। चारों तरफ कालिमा छायी हुई थी और हलकी-हलकी बूंदें पड़ रही थीं। वह बाहर निकला ही था कि उसके सर पर लाठी का भरपूर हाय पड़ा। वह त्योराकर गिरा और रात भर वहीं बेसुध पड़ा रहा। मालूम नहीं उस पर कितनी चोर्ट पड़ी। हमला करनेवालों ने तो अपनी समझ में उसका काम तमाम कर डाला। लेकिन जिन्दगी बाकी थी। यह पाठे के गैरतमन्द लोग थे जिन्होंने अंधेरे की आड़ में अपनी हार का बदला लिया था।

गोपाल जाति का अहीर था, न पढ़ा न लिखा, बिलकुल अक्खड़। दिमाग रौशन ही नहीं हुआ तो शरीर का दीपक क्यों धुलता। पूरे छः फुट का क़द, गठा हुआ वदन, ललकारकर गाता तो सुननेवाले मील भर पर बैठे हुए उसकी तानों का मजा लेते। गाने-बजाने का आशिक, होली के दिनों में महीने भर तक गाता, सावन में मलार और भजन तो रोज का शगल था । निडर ऐसा कि भूत और पिशाच के अस्तित्व पर उसे विद्वानों जैसे सन्देह थे। लेकिन जिस तरह शेर और चीते भी लाल लपटों से डरते हैं उसी तरह लाल पगड़ी से उसकी रूह काँपने लगती थी। अगरचे साठे के एक हिम्मती सूरमा के लिए यह बेमतलब डर असाधारग बात थी लेकिन उसका कुछ वस न था। सिपाही की वह डरावनी तस्वीर जो बचपन में उसके दिल पर खींची गयी थी, पत्थर की लकीर बन गयी थी। शरारतें गयीं, बचपन गया, मिठाई की भूख गयी लेकिन सिपाही की तस्वीर अभी तक कायम धी! आज उसके दरवाजे पर लाल पगड़ीवालों की एक फ़ौज जमा थी लेकिन गोपाल जख्मों से चूर, दर्द से बेचैन होने पर भी अपने मकान के एक अँधेरे कोने में छिपा हुआ बैठा था। नम्बरदार और मुखिया, पटवारी और चौकीदार रोब खाये हुए ढंग से खड़े दारोगा को खुशामद कर रहे थे। कहीं अहीर की फ़रियाद सुनायी देती थी, कहीं मोदी का रोना-धोना, कहीं तेली की चीख-पुकार, कहीं कसाई की आँखों से लहू जारी। कलवार खड़ा अपनी किस्मत को रो रहा था। फोहश और गन्दी बातों की गर्मबाजारी थी। दारोगा जी निहायत कारगुजार अफसर गालियों में बात करते थे। सुबह को चारपाई से उठते ही गालियों का वज़ीफ़ा पढ़ते थे। मेहतर ने आकर फ़रियाद की—हजूर, अण्डे नहीं हैं, दारोगा जी हष्टर लेकर दौड़े और उस गरीब का भुरकुस निकाल दिया। सारे गाँव में हलचल पड़ी हुई थी। कानिस्टिदिल और चौकीदार रास्तों पर यों अकड़ते चलते थे गोया अपनी ससुराल में आये हैं।