पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/१५२

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१४० गुप्त धन मालिन फूल के हार, केले की शाखें और बन्दनवारें लायी। कुम्हार नये नये दिये और हाँड़िया दे गया। बारी हरे ढाक के पत्तल और दोने रख गया। कहार ने आकर मटकों में पानी भरा। बढ़ई ने आकर गोपाल और गौरा के लिए दो नयीनयी पीड़ियाँ बनायीं। नाइन ने आँगन लीपा और चौक बनायी। दरवाजे पर बन्दनवारें बँध गयीं। आँगन में केले की शाखें गड़ गयीं। पण्डित जी के लिए सिंहासन सज गया। आपस के कामों की व्यवस्था खुद-ब-खुद अपने निश्चित दायरे पर चलने लगी। यही व्यवस्था संस्कृति है जिसने देहात की ज़िन्दगी को आडम्बर की ओर से उदासीन बना रक्खा है। लेकिन अफसोस है कि अब ऊँच-नीच की वेमतलब और बेहूदा कैदों ने इन आपसी कर्तव्यों को सौहार्द सहयोग के पद से हटा कर उन पर अपमान और नीचता का दाग लगा दिया है। - शाम हुई। पण्डित मोटेराम जी ने कन्धे पर झोली डाली, हाथ में शंख लिया और खड़ाऊँ पर,खटपट करते गोपाल के घर आ पहुँचे। आँगन में टाट बिछा हुआ था। गाँव के प्रतिष्ठित लोग कथा सुनने के लिए आ बैठे। घण्टी वजी, शंख फूंका गया और कथा शुरू हुई। गोपाल भी गाढ़े की चादर ओढ़े एक कोने में दीवार के सहारे बैठा हुआ था। मुखिया, नम्बरदार और पटवारी ने मारे हमदर्दी के उससे कहा-सत्यनारायण की महिमा थी कि तुम पर कोई आँच न आयी! गोपाल ने अंगड़ाई लेकर कहा-सत्यनारायण की महिमा नहीं, यह अन्धेर है। --ज़माना, जुलाई १९१३