पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/१५४

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१४२ गुप्त धन मुश्किल बता देना, उनकी हिम्मत को प्रेरित कर देना था। जहाँ सब की ज़बाने बन्द हो जायें, वहाँ वे शेरों की तरह गरजते थे। जब कभी गांव में दारोगा जी तशरीफ लाते तो ठाकुर साहब ही का दिल-गुर्दा था कि उनसे आँखें मिला कर आमने-सामने बात कर सकें। ज्ञान की बातों को लेकर छिड़नेवाली बहसों के मैदान में भी उनके कारनामे कुछ कम शानदार न थे। झगड़ा पण्डित हमेशा उनसे मुंह छिपाया करते। ग़रज ठाकुर साहब का स्वभावगत गर्व और आत्म-विश्वास उन्हें हर वरात में दूल्हा बनने पर मजबूर कर देता था। हाँ, कमजोरी इतनी थी कि अपना आल्हा भी आप ही गा लेते और मजे ले-ले कर क्योंकि रचना को रचनाकार ही खूब बयान करता है ! २ जब दोपहर होते-होते ठाकुर और ठकुराइन गाँव से चले तो सैकड़ों आदमी उनके साथ थे और पक्की सड़क पर पहुंचे, तो यात्रियों का ऐसा तांता लगा हुआ था कि जैसे कोई बाज़ार है। ऐसे-ऐसे बूढ़े लाठियाँ टेकते या डोलियों पर सवार चले जाते थे जिन्हें तकलीफ़ देने की यमराज ने भी कोई जरूरत न समझी थी। अन्धे दूसरों की लकड़ी के सहारे कदम बढ़ाये आते थे। कुछ आदमियों ने अपनी बूढ़ी माताओं को पीठ पर लाद लिया था। किसी के सर पर कपड़ों की पोटली, किसी के कन्धे पर लोटा-डोर, किसी के कन्धे पर काँवर। कितने ही आदमियों ने पैरों पर चीथड़े लपेट लिये थे, जूते कहाँ से लायें। मगर धार्मिक उत्साह का यह वरदान था कि मन किसी का मैला न था। सब के चेहरे खिले हुए, हँसते-हँसते बातें करते चले जा रहे थे। कुछ औरतें गा रही थींचाँद सुरज दूनो लोक के मालिक उनहूँ पर बनती हम जानी हमहीं पर बनती ऐसा मालूम होता था, यह आदमियों की एक नदी थी, जो सैकड़ों छोटे-छोटे नालों और धारों को लेती हुई समुद्र से मिलने के लिए जा रही थी। जब यह लोग गंगा के किनारे पहुँचे तो तीसरे पहर का वक्त था लेकिन मीलों तक कहीं तिल रखने की जगह न थी। इस शानदार दृश्य से दिलों पर ऐसा रोब और भक्ति का ऐसा भाव छा जाता था कि बरबस 'गंगामाता की जय' की सदायें बुलन्द हो जाती थीं। लोगों के विश्वास उसी नदी की तरह उमड़े हुए थे और वह एक दिना .