पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/१५७

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सिर्फ एक आवाज १४५ अपने त्योहारों में उन्हें बुलायेंगे। उनके गले मिलेंगे और उन्हें अपने गले लगायेंगे। उनकी खुशियों में खुश और उनके दर्दी में दर्दमन्द होंगे, और चाहे कुछ ही क्यों न हो जाय, चाहे तानों-तिश्नों और जिल्लत का सामना ही क्यों न करना पड़े, हम इस प्रतिज्ञा पर कायम रहेंगे। आपमें सैकड़ों जोशीले नौजवान हैं जो वात के बनी और इरादे के मजबूत हैं! कौन यह प्रतिज्ञा करता है ? कौन अपने नैतिक साहस का परिचय देता है ? वह अपनी जगह पर खड़ा हो जाय और ललकारकर कहे कि मैं यह प्रतिज्ञा करता हूँ और मरते दम तक इस पर दृढ़ता से कायम रहूँगा। सूरज गंगा की गोद में जा बैठा था और माँ प्रेम और गर्व से मतवाली जोश से उमड़ी हुई, रंग में केसर को शर्माती और चमक में सोने को लजाती थी। चारों तरफ एक रोबीली खामोशी छायी थी। उस सन्नाटे में संन्यासी की गर्मी और जोश से भरी हुई बातें गंगा की लहरों और गगनचुम्बी मन्दिरों में समा गयीं। गंगा एक गम्भीर माँ की निराशा के साथ हँसी और देवताओं ने अफसोस से सिर झुका लिया, मगर मुँह से कुछ न बोले। संन्यासी की जोशीली पुकार फ़िज़ा में जाकर गायव हो गयी, मगर उस मजमे में किसी आदमी के दिल तक न पहुँची। वहाँ क़ौम पर जान देनेवालों की कमी न थी; स्टेजों पर क़ौमी तमाशे खेलनेवाले कालेजों के होनहार नौजवान, कौम के नाम पर मिटनेवाले पत्रकार, कौमी संस्थाओं के मेम्बर, सेक्रेटरी और प्रेसिडेण्ट, राम और कृष्ण के सामने सिर झुकानेवाले सेठ और साहूकार, कौमी कालिजों के ऊँचे हौसलोंवाले प्रोफेसर और अखबारों में क़ौमी तरक्कियों की खबरें पढ़कर खुश होनेवाले दफ्तरों के कर्मचारी हजारों की तादाद में मौजूद थे। आँखों पर सुनहरी ऐनके लगाये, मोटे-मोटे वकीलों की एक पूरी फ़ौज जमा थी मगर संन्यासी के उस गर्म भाषण से एक दिल भी न पिघला क्योंकि वह पत्थर के दिल थे जिनमें दर्द और घुलावट न थी, जिनमें सदिच्छा थी मगर कार्य-शक्ति न थी, जिनमें बच्चों की-सी इच्छा थी मगर मदों का-सा इरादा न था। सारी मजलिस पर सन्नाटा छाया हुआ था। हर आदमी सिर झुकाये फ़िक्र में डूबा हुआ नज़र आता था। शमिन्दगी किसी को सर उठाने न देती थी और आँखें झेंप के मारे ज़मीन में गड़ी हुई थीं। यह वहीं सर हैं जो कौमी चर्चों पर उछल पड़ते थे, यह वही आँखें हैं जो किसी वक्त राष्ट्रीय गौरव की लाली से भर जाती १०