पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/१७५

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बाँका जमींदार २६३ चस्पियों का खजाना बनी रही। एक साहब ने उस पर अपनी कलम भी चलायी। बेचारे ठाकुर साहब ऐसे बदनाम हुए कि घर से निकलना मुश्किल हो गया। बहुत कोशिश की कि गाँव आबाद हो जाय लेकिन किसकी जान भारी थी कि इस अवेर नगरी में कदम रखता जहाँ मोटापे की सजा फाँसी थी। कुछ मज़दूर-पेशा लोग किस्मत का जुआ खेलने आये मगर कुछ महीनों से ज्यादा न जम सके। उजड़ा हुआ गाँव खोया हुआ एतबार है जो बहुत मुश्किल से जमता है। आखिर जब कोई बस न चला तो ठाकुर साहब ने मजबूरहोकर आराजी माफ करने का आम ऐलान कर दिया लेकिन इस रियायत ने रही-सही साख भी खो दी। इस तरह तीन साल गुजर जाने के वाद एक रोज वहाँ बंजारों का काफिला आया। शाम हो गयी थी और पूरव तरफ से अंधेरे की लहर बढ़ती चली आती थी। बंजारों ने देखा तो सारा गाँव वीरान पड़ा हुआ है, जहाँ आदमियों के घरों में गिद्ध और गीदड़ रहते थे। इस तिलिस्म का भेद समझ में न आया । मकान मौजूद हैं, ज़मीन उपजाऊ है, हरियाली से लहराते हुए खेत हैं और इन्सान का नाम नहीं! कोई और गाँव पास न था। वहीं पड़ाव डाल दिया। जब सुबह हुई, बैलों के गलों की घंटियों ने फिर अपना रजतसंगीत अलापना शुरू किया और काफ़िला गाँव से कुछ दूर निकल गया तो एक चरवाहे ने ज़ोर-ज़बर्दस्ती की यह लम्बी कहानी उन्हें सुनायी। दुनिया भर में घूमते फिरने ने उन्हें मुश्किलों का आदी बना दिया था। आपस में कुछ मशविरा किया और फैसला हो गया। ठाकुर साहब की ड्योढ़ी पर जा पहुँचे और नजराने दाखिल कर दिये। गाँव फिर आबाद हुआ। यह बंजारे बला के चीमड़, लोहे की-सी हिम्मत और इरादे के लोग थे जिनके आते ही गाँव में लक्ष्मी का राज हो गया। फिर घरों में से धुएं के बादल उठे, कोल्हाड़ों ने फिर बुएँ और भाप की चादरें पहनी, तुलसी के चबूतरे पर फिर से चिराग़ जले। रात को रंगीन-तबीयत नौजवानों की अला सुनायी देने लगीं। चरागाहों में फिर मवेशियों के गल्ले दिखायी दिये और किसी पेड़ के नीचे बैठे हुए चरवाहे की बाँसुरी की मद्धिम और रसीली आवाज़ दर्द और असर में डूबी हुई इस प्राकृतिक दृश्य में जादू का आकर्षण पैदा करने लगी। भादों का महीना था। कपास के फूलों की सुर्ख और सफेद चिकनाई, तिल की ऊदी बहार और सन का शोख पीलापन अपने रूप का जलवा दिखाता था। किसानों की मडैया और छप्परों पर भी फल-फूल की रंगीनी दिखायी देती थी। उस पर पानी की हलकी-हलकी फुहारें प्रकृति के सौन्दर्य के लिए सिंगार करनेवाली.