पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/१८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७०
गुप्त धन
 

था कि उनके पैरों को पकड़कर खूब रोये। आज बहुन दिनों के बाद एक सच्चे हम-दर्द की आवाज़ उसके कान में आयी थी।

जब सेठ जी चले तो उसने दोनों हाथों से प्रणाम किया। उसके हृदय की गहराइयों से प्रार्थना निकली—आपने एक बेबस पर दया की है, ईश्वर आपको इसका बदला दे।

दूसरे दिन रोहिणी पाठशाला गयी तो उसकी बाँकी सज-धज आँखों में खुबी जाती थी। उस्तानियों ने उसे बारी-बारी प्यार किया और उसकी सहेलियाँ उसकी एक-एक चीज़ को आश्चर्य से देखती और ललचाती थीं। अच्छे कपड़ों से कुछ स्वाभिमान का अनुभव होता है। आज रोहिणी वह गरीब लड़की न रही जो दूसरों की तरफ विवश नेत्रों से देखा करती थी। आज उसकी एक-एक क्रिया से शैशवोचित गर्व और चंचलता टपकती थी और उसकी ज़बान एक दम के लिए भी न रुकती थी। कभी मोटर की तेजी का जिक्र था, कभी बाजार की दिलचस्पियों का बयान, कभी अपनी गुड़ियों के कुशल-मंगल की चर्चा थी और कभी अपने बाप की मुहब्बत की दास्तान। दिल था कि उमंगों से भरा हुआ था।

एक महीने के बाद सेठ पुरुषोत्तमदास ने रोहिणी के लिए फिर तोहफ़े और रुपये रवाना किये। बेचारी विधवा को उनकी कृपा से जीविका की चिन्ता से छुट्टी मिली। वह भी रोहिणी के साथ पाठशाला आती और दोनों माँ-बेटियाँ एक ही दरजे में साथ-साथ पढ़तीं, लेकिन रोहिणी का नम्बर हमेशा माँ से अव्वल रहा। सेठ जी जब पूना की तरफ से निकलते तो रोहिणी को देखने ज़रूर आते और उनका आगमन उसको प्रसन्नता और मनोरंजन के लिए महीनों का सामान इकट्ठा कर देता।

इसी तरह कई साल गुजर गये और रोहिणी ने जवानी के सुहाने हरे-भरे मैदान में पैर रक्खा, जब कि बचपन की भोली-भाली अदाओं में एक खास मतलब और इरादों का दखल हो जाता है।

रोहिणी अब आन्तरिक और बाह्य सौन्दर्य में अपनी पाठशाला की नाक थी। हाव-भाव में आकर्षक गम्भीरता, बातों में गोत का-सा खिचाव और गीत का-सा आत्मिक रस था। कपड़ों में रंगीन सादगी, आँखों में लाज-संकोच, विचारों में पवित्रता। जवानी थी मगर घमण्ड और बनावट और चंचलता से मुक्त। उसमें एक एकाग्रता थी जो ऊँचे इरादों से पैदा होती है। स्त्रियोचित उत्कर्ष की मंजिलें। वह धीरे-धीरे तय करती चली जाती थी।