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गुप्त धन
 

उसकी आँखों के सामने आ खड़ी हुई। उनकी वह प्रेम की बातें, जिनका सिलसिला बम्बई से पूना तक नहीं टूटा था, कानों में गूंजने लगीं। उसने एक ठण्डी सांस ली और उदास होकर चारपाई पर लेट गयी।

सरस्वती पाठशाला एक बार फिर सजावट और सफाई के दृश्य दिखाई दे रहे हैं। आज रोहिणी की शादी का शुभ दिन है। शाम का वक्त, वसन्त का सुहाना मौसम, पाठशाला के दरो-दीवार मुस्करा रहे हैं और हरा-भरा बागीचा फूला नहीं समाता।

चन्द्रमा अपनी बारात लेकर पूरब की तरफ से निकला। उसी वक्त मंगलाचरण का सुहाना राग उस रुपहली चाँदनी और हल्के-हल्के हवा के झोंकों में लहरें मारने लगा। दूल्हा आया, उसे देखते ही लोग हैरत में आ गये। यह नरोत्तमदास थे।

दूल्हा मण्डप के नीचे गया। रोहिणी की माँ अपने को रोक न सकी, वह उसी वक्त जाकर सेठ जी के पैरों पर गिर पड़ी। रोहिणी की आँखों से प्रेम और आनन्द के आँसू बहने लगे।

मण्डप के नीचे हवन-कुण्ड बना हुआ था। हवन शुरू हुआ, खुशबू की लपटें हवा में उठी और सारा मैदान महक गया। लोगों के दिलो-दिमाग में ताजगी की उमंग पैदा हुई।

फिर संस्कार की बारी आयी। दूल्हा और दुल्हन ने आपस में हमदर्दी, जिम्मेदारी और वफ़ादारी के पवित्र शब्द अपनी जबानों से कहे। विवाह की वह मुबारक जंजीर गले में पड़ी जिसमें वज़न है, सख्ती है, पाबन्दियाँ हैं लेकिन वजन के साथ सुख और पाबन्दियों के साथ विश्वास है। दोनों दिलों में उस वक्त एक नयीं, बलवान, आत्मिक शक्ति की अनुभूति हो रही थी।

जब शादी की रस्में खत्म हो गयीं तो नाच-गाने की मजलिस का दौर आया। मोहक गीत गूंजने लगे। सेठ जी थककर चूर हो गये थे। ज़रा दम लेने के लिए बागीचे में जाकर एक बेंच पर बैठ गये। ठण्डी-ठण्डी हवा आ रही थी। एक नशा-सा पैदा करनेवाली शान्ति चारों तरफ छायी हुई थी। उसी वक्त रोहिणी उनके पास आयी और उनके पैरों से लिपट गयी। सेठ जी ने उसे उठाकर गले से लगा लिया और हँसकर बोले—क्यों, अब तो तुम मेरी अपनी बेटी हो गयीं?

—जमाना, जून १९१४