पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/१८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कर्मों का फल
१७७
 

में भी आँसू भर आये। उस सिमटे हुए ढाँचे में बीमारी को भी मुश्किल से जगह मिलती होगी, ज़िन्दगी का क्या ज़िक्र! आखिर मैंने धीरे से पुकारा। आवाज़ सुनते ही वह बड़ी-बड़ी आँखे खुल गयीं लेकिन उनमें पीड़ा और शोक के आँसू न थे, संतोष और ईश्वर पर भरोसे की रोशनी थी। और वह पीला चेहरा! आह वह गम्भीर संतोष का मौन चित्र, वह संतोषमय संकल्प की सजीव स्मृति। उसकेपीलेपन में मदीना हिम्मत की लाली झलकती थी। मैं उसकी सूरत देखकर घबरा गया। क्या यह बुझते हुए चिराग की आखिरी झलक तो नहीं है?

मेरी सहमी हुई सूरत देखकर वह मुस्कराया और बहुत धीमी आवाज में बोला—तुम ऐसे उदास क्यों हो, यह सब मेरे कर्मों का फल है।

मगर कुछ अजब बदकिस्मत आदमी था। मुसीबतों को उससे कुछ खास मुहब्बत थी। किसे उम्मीद थी कि वह उस प्राणघातक रोग से मुक्ति पायेगा। डाक्टरों ने भी जवाब दे दिया था। मौत के मुंह से निकल आया। अगर भविष्य का जरा भी ज्ञान होता तो सबसे पहले मैं उसे जहर दे देता। आह, उस शोकपूर्ण घटना को याद करके कलेजा मुँह को आता है। धिक्कार है इस ज़िन्दगी पर कि बाप अपनी आँखों से अपने इकलौते बेटे का शोक देखे!

कैसा हँसमुख, कैसा खूबसूरत, होनहार लड़का था, कैसा सुशील, कैसा मधुर-भाषी, जालिम मौत ने उसे छाँट लिया। प्लेग की दुहाई मची हुई थी। शाम को गिल्टी निकली और सुबह को—कैसी मनहूस, अशुभ सुबह थी—वह जिन्दगी सबेरे के चिराग़ की तरह बुझ गयी। मैं उस वक्त उस बच्चे के पास बैठा हुआ था और साईदयाल दीवार का सहारा लिये हुए खामोश आसमान की तरफ देखता था। मेरी और उसकी आँखों के सामने ज़ालिम और बेरहम मौत ने उस बच्चे को हमारी गोद से छीन लिया। मैं रोते हुए साईंदयाल के गले से लिपट गया। सारे घर में कुहराम मचा हुआ था। बेचारी माँ पछाड़ें खा रही थी, बहनें दौड़-दौड़कर भाई की लाश से लिपटती थीं। और ज़रा देर के लिए ईर्ष्या ने भी समवेदना के आगे सिर झुका दिया था—मुहल्ले की औरतों को आँसू बहाने के लिए दिल पर जोर डालने की ज़रूरत न थी।

जब मेरे आँसू थमे तो मैंने साईदयाल की तरफ देखा। आँखों में तो आँसू भरे हुए थे—आह, संतोष का आँखों पर कोई बस नहीं लेकिन चेहरे पर मर्दाना दृढ़ता

१२