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अमृत
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कारों की तरह मेरा भी खयाल था कि साहित्य के उन्माद और सौन्दर्य के उन्माद में पुराना बैर है। मुझे अपनी ज़बान से कहते हुए शर्मिन्दा होना पड़ता है कि मुझे अपनी तबीयत पर भरोसा न था। जब कभी मेरी आँखों में कोई मोहिनी सुरत खुब जाती तो मेरे दिल-दिमाग पर एक पागलपन-सा छा जाता! हफ्तों तक अपने को भूला हुआ-सा रहता। लिखने की तरफ़ तबीयत किसी तरह न झुकती। ऐसे कमज़ोर दिल में सिर्फ एक इश्क की जगह थी। इसी डर से मैं अपनी रंगीन तबीयत के खिलाफ आचरण शुद्ध रखने पर मजबूर था। कमल की एक पंखुड़ी, श्यामा के एक गीत, लहलहाते हुए एक मैदान में मेरे लिए जादू का-सा आकर्षण था मगर किसी औरत के दिलफ़रेब हुस्न को मैं चित्रकार या मूर्तिकार की बेलौस आँखों से नहीं देख सकता था। सुन्दर स्त्री मेरे लिए एक रंगीन, कातिल नागिन थी जिसे देखकर आँखें खुश होती हैं मगर दिल डर से सिमट जाता है।

खैर, 'दुनियाए हुस्न' को प्रकाशित हुए दो साल गुजर चुके थे। मेरी ख्याति बरसात की उमड़ी हुई नदी की तरह बढ़ती चली जाती थी। ऐसा मालूम होता था कि जैसे मैंने साहित्य की दुनिया पर कोई वशीकरण कर दिया है। इस दौरान में मैंने फुटकर शेर तो बहुत कहे मगर दावतों और अभिनन्दनपत्रों की भीड़ ने मामिक भावों को उभरने न दिया। प्रदर्शन और ख्याति एक राजनीतिज्ञ के लिए कोड़े का काम दे सकते हैं, मगर शायर की तबीयत अकेले शान्ति से एक कोने में बैठकर ही अपना जौहर दिखलाती है। चुनांचे मैं इन रोज़ ब रोज़ बढ़ती हुई बेहूदा बातों से गला छुड़ाकर भागा और पहाड़ के एक कोने में जा छिपा। 'नैरंग' ने वहीं जन्म लिया।

'नैरंग' के शुरू करते ही मुझे एक आश्चर्यजनक और दिल तोड़नेवाला अनुभव हुआ। ईश्वर जाने क्यों मेरी अक्ल और मेरे चिन्तन पर एक पर्दा पड़ गया। घण्टों तबीयत पर जोर डालता मगर एक शेर भी ऐसा न निकलता कि दिल फड़क उठे। सूझते भी तो दरिद्र, पिटे हुए विषय, जिनसे मेरी आत्मा भागती थी। मैं अक्सर झुंझलाकर उठ बैठता, काग़ज़ फाड़ डालता और बड़ी बेदिली की हालत में सोचने लगता कि क्या मेरी काव्यशक्ति का अन्त हो गया, क्या मैंने वह खजाना जो प्रकृति ने मुझे सारी उम्र के लिए दिया था, इतनी जल्दी मिटा दिया। कहाँ वह हालत थी कि विषयों की बहुतायत और नाजुक खयालों की रवानी कलम को दम नहीं लेने देती थी। कल्पना का पंछी उड़ता तो आसमान का तारा बन जाता था