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अमृत
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नशे से लाल नज़र आतीं। अगरचे इसी लेख में आगे चलकर उन्होंने मेरी इस बुरी आदत की बहुत उदारहृदयता से सफाई दी थी क्योंकि रूखा-सूखा आदमी ऐसी मस्ती के शेर नहीं कह सकता था। ताहम हैरत है कि उन्हें यह सरीहन ग़लत बात कहने की हिम्मत कैसे हुई?

खैर, इन ग़लत-बयानियों की तो मुझे परवाह न थी। अलबत्ता यह बड़ी फिक्र थी, फिक्र नहीं एक प्रबल जिज्ञासा थी, कि मेरी शायरी पर लोगों की ज़बान से क्या फतवा निकलता है। हमारी ज़िन्दगी के कारनामे की सच्ची दाद मरने के बाद ही मिलती है क्योंकि उस वक्त वह खुशामद और बुराइयों से पाक-साफ होती है। मरनेवाले की खुशी या रंज की कौन परवाह करता है। इसीलिए मेरी कविता पर जितनी आलोचनाएं निकली हैं उनको मैंने बहुत ही ठंडे दिल से पड़ना शुरू किया। मगर कविता को समझनेवाली दृष्टि की व्यापकता और उसके मर्म को समझनेवाली रुचि का चारों तरफ अकाल-सा मालूम होता था। अधिकांश जौहरियों ने एक-एक शेर को लेकर उनसे बहस की थी, और इसमें शक नहीं कि वे पाठक की हैसियत से उस शेर के पहलुओं को खूब समझते थे। मगर आलोचक का कहीं पता न था। नज़र की गहराई शायब थी। समग्र कविता पर निगाह डालनेवाला, कवि के गहरे भावों तक पहुँचनेवाला कोई आलोचक न दिखायी दिया।

एक रोज मैं प्रेतों की दुनिया से निकलकर घूमता हुआ अजमेर की पब्लिक लाइब्ररी में जा पहुँचा। दोपहर का वक्त था। मैंने मेज पर झुककर देखा कि कोई नयी रचना हाथ आ जाये तो दिल बहलाऊँ। यकायक मेरी निगाह एक सुन्दर पत्र की ओर गयी जिसका नाम था 'कलाम अख्तर'। जैसे भोला बच्चा खिलौने की तरफ लपकता है उसी तरह झपटकर मैंने उस किताब को उठा लिया। उसकी लेखिका मिस आयशा आरिफ़ थीं। दिलचस्पी और भी ज्यादा हुई। मैं इत्मीनान से बैठकर उस किताब को पढ़ने लगा। एक ही पन्ना पढ़ने के बाद दिलचस्पी ने बेताबी की सूरत अख्तियार की। फिर तो मैं बेसुधी की दुनिया में पहुँच गया। मेरे सामने गोया सूक्ष्म अर्थों की एक नदी लहरें मार रही थी। कल्पना की उठान, रुचि की स्वच्छता, भाषा की नर्मी, काव्य-दृष्टि की व्यापकता, किस-किस की तारीफ करूं। उसकी एक-एक कल्पना ऐसी थी कि हृदय धन्य धन्य कह उठता। मैं एक पैराग्राफ पढ़ता, फिर विचार की ताजगी से प्रभावित होकर एक लम्बी साँस लेता