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गुप्त धन
 


और तब सोचने लगता। इस किताब को सरसरी तौर पर पढ़ना असम्भव था। यह औरत थी या सुरुचि की देवी। उसके इशारों से मेरा कलाम बहुत कम बचा था मगर जहाँ उसने मुझे दाद दी थी, वहाँ सच्चाई के मोती बरसा दिये थे उसके एतराज़ों में हमदर्दी और प्रशंसा में भक्ति थी। शायर के कलाम को दोवों की दृष्टि से नहीं, खूबियों की दृष्टि से देखना चाहिए। उसने क्या नहीं किया, यह ठीक कसौटी नहीं। उसने क्या किया, यह ठीक कसौटी है। बस यही जी चाहता था कि लेखिका के हाथ और कलम चूम लूं। 'सफ़ीर' भोपाल के दफ्तर से यह पत्रिका प्रकाशित हुई थी। मेरा पक्का इरादा हो गया, तीसरे दिन शाम के वक्त मैं मिस आयशा के खूबसूरत बँगले के सामने हरी-हरी घास पर टहल रहा था। मैं नौकरानी के साथ एक कमरे में दाखिल हुआ। उसकी सजावट बहुत सादी थी। पहली चीज़ जिस पर मेरी निगाह पड़ी वह मेरी तस्वीर थी जो दीवार से लटक रही थी। सामने एक आइना रक्खा हुआ था। मैंने खुदा जाने क्यों उसमें अपनी सूरत देखी। मेरा चेहरा पीला और कुम्हलाया हुआ था, बाल उलझे हुए, कपड़ों पर गर्द की एक मोटी तह जमी हुई, परेशानी की ज़िन्दा तस्वीर खड़ी थी।

उस वक्त मुझे अपनी बुरी शक्ल पर सख्त शर्मिन्दगी हुई। मैं सुन्दर न सही भगर इस वक्त तो सचमुच चेहरे पर फटकार बरस रही थी। अपने लिबास के ठीक होने का यकीन हमें खुशी देता है। अपने फूहड़पन का जिस्म पर इतना असर नहीं होता जितना दिल पर। हम वुज़दिल और बेहौसला हो जाते हैं।

मुझे मुश्किल से पाँच मिनट गुज़रे होंगे कि मिस आयशा तशरीफ लायीं। साँवला रंग था, चेहरा एक गम्भीर घुलावट से चमक रहा था। बड़ी-बड़ी नरगिसी आँखों से सदाचार की, संस्कृति की रोशनी झलकती थी। कद मझोले से कुछ कम । अंग-प्रत्यंग छरहरे, सुथरे, ऐसी हल्की-फुल्की कि जैसे प्रकृति ने उसे इस भौतिक संसार के लिए नहीं, किसी काल्पनिक संसार के लिए सिरजा है। कोई चित्रकार कला की उससे अच्छी तस्वीर नहीं खींच सकता था।

मिस आयशा ने मेरी तरफ दबी निगाहों से देखा मगर देखते-देखते उसकी गर्दन झुक गयी और उसके गालों पर लाज की एक हल्की सी परछाईं नाचती हुई मालूम हुई। जमीन से उठकर उसकी आँखें मेरी तस्वीर की तरफ गयीं और फिर सामने पर्दे की तरफ जा पहुँची। शायद उसकी आड़ में छिपना चाहती थीं। मिस आयशा ने मेरी तरफ दबी निगाहों से देखकर पूछा-आप स्वर्गीय अख्तर के दोस्तों में हैं?