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अमृत
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मैंने सर नीचा किये हुए जवाब दिया—मैं ही बदनसीब अख्तर हूँ।

आयशा एक बेखुदी के आलम में कुर्सी पर से उठ खड़ी हुई और मेरी तरफ हैरत से देखकर बोली—'दुनियाए हुस्न' के लिखनेवाले?

अन्धविश्वास के सिवा और किसने इस दुनिया से चले जानेवाले को देखा है। आयशा ने मेरी तरफ कई बार शक से भरी हुई निगाहों से देखा। उनमें अब शर्म और हया की जगह के बजाय हैरत समायी हुई थी। मेरे कब्र से निकलकर भागने का तो उसे यकीन आ ही नहीं सकता था, शायद वह मुझे दीवाना समझ रही थी। उसने दिल में फैसला किया कि यह आदमी मरहूम शायर का कोई क़रीबी अजीज है। शकल जिस तरह मिल रही थी वह दोनों के एक खानदान के होने का सबूत थी। मुमकिन है कि भाई हो। इस अचानक सदमे से पागल हो गया है। शायद उसने मेरी किताब देखी होगी और हाल पूछने के लिए चला आया। अचानक उसे खयाल गुजरा कि किसी ने अखबारों को मेरे मरने की झूठी खवर दे दी हो और मुझे उस खबर को काटने का मौका न मिला हो। इस खयाल से उसकी उलझन दूर हुई, बोली—अखबारों में आपके बारे में एक निहायत मनहूस खबर छप गयी थी? मैंने जवाब दिया—वह खवर सही थी।

अगर पहले आयशा को मेरे दीवानेपन में कुछ शक था तो वह दूर हो गया। आखिर मैंने थोड़े लफ़्ज़ों में अपनी दास्तान सुनायी और जब उसको यकीन हो गया कि 'दुनियाए हुस्न' का लिखनेवाला अख्तर अपने इन्सानी चोले में है तो उसके चेहरे पर खुशी की एक हल्की सुर्जी दिखायी दी और यह हल्का रंग बहुत जल्द खुददारी और रूप-गर्व के शोख रंग से मिलकर कुछ का कुछ हो गया। ग़ालिबन वह शर्मिन्दा थी कि क्यों उसने अपनी कद्रदानी को हद से बाहर जाने दिया। कुछ देर की शर्मीली खामोशी के बाद उसने कहा—मुझे अफसोस है कि आपको ऐसी मनहूस खबर निकालने की जरूरत हुई।

मैंने जोश में भरकर जवाब दिया—आपके क़लम की ज़बान से दाद पाने की कोई सूरत न थी। इस तनकीद के लिए मैं ऐसी-ऐसी कई मौतें मर सकता था।

मेरे इस बेधड़क अन्दाज ने आयशा की ज़बान को भी शिष्टाचार और संकोच की कैद से आजाद किया, मुस्कराकर बोली—मुझे बनावट पसन्द नहीं है। डाक्टरों ने कुछ बतलाया नहीं? उसकी इस मुस्कराहट ने मुझे दिल्लगी करने पर आमादा किया, बोला—अब मसीह के सिवा इस मर्ज का इलाज और किसी के हाथ से नहीं हो सकता।