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१८८ गुप्त धन

आयशा इशारा समझ गई, हँसकर बोली-मसीह चौथे आसमान पर रहते हैं ।

मेरी हिम्मत ने अब और क़दम बढ़ाये--रूहों की दुनिया से चौथा आसमान बहुत दूर नहीं है।

आयशा के खिले हुए चेहरे से संजीदगी और अजनबियत का हल्का रंग उड़ गया। ताहम, मेरे इन बेबड़क इशारों को हद से बढ़ते देखकर उसे मेरी ज़बान पर रोक लगाने के लिए किसी क़दर खुददारी बरतना पड़ी। जब मैं कोई घंटे भर के बाद उस कमरे से निकला तो बजाय इसके कि वह मेरी तरफ अपनी अंग्रेजी तहज़ीब के मुताबिक हाथ बढ़ाये उसने चोरी-चोरी मेरी तरफ देखा। फैला हुआ पानी जब सिमटकर किसी जगह से निकलता है तो उसका बहाव बहुत तेज़ और ताक़त कई गुना ज्यादा हो जाती है। आयशा की उन निगाहों में अस्मत की तासीर थी। उनमें दिल मुस्कराता था और जज़्बा नाचता था। आह उनमें मेरे लिए दावत का एक पुरजोश पैग़ाम भरा हुआ था। जब मैं मुस्लिम होटल में पहुँचकर इन वाक्यात पर गौर करने लगा तो मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि गो मैं ऊपर से देखने पर यहाँ अब तक अपरिचित था लेकिन भीतरी तौर पर शायद मैं उसके दिल के कोने तक पहुँच चुका था।

जब मैं खाना खाकर पलँग पर लेटा तो बावजूद दो दिन रात-रात भर जागने के नींद आँखों से कोसों दूर थी। जज़्बात की कशमकश में नींद कहाँ। आयशा की सूरत, उसकी खातिरदारियाँ और उसकी वह छिपी-छिपी निगाह दिल में एहसासों का तूफान-सा बरपा कर रही थी। उस आखिरी निगाह ने दिल में तमन्नाओं की रूम-धूम मचा दी। वह आरजुएँ जो, बहुत अरसा हुआ, मर मिटी थीं फिर जाग उठी और आरजुओं के साथ कल्पना ने भी मुँदी हुई आँखें खोल दीं।

दिल में जज्बात और कैफियात का एक नया बेचैन करनेवाला जोश महसूस हुआ। यही आरजुएँ, यही बेचैनियाँ और यही शोरिशें कल्पना के दीपक के लिए

तेल हैं। जज्बात की हरारत ने कल्पना को गरमाया। मैं कलम लेकर बैठ गया और एक ऐसी नज्म लिखी जिसे मैं अपनी सबसे शानदार दौलत समझता हूँ। मैं एक होटल में रह रहा था, मगर किसी न किसी हीले से दिन में कम से कम एक बार ज़रूर उसके दर्शन का आनन्द उठाता। गो आयशा ने कभी मेरे यहाँ तक आने की तकलीफ नहीं की तो भी मुझे यह यकीन करने के लिए शहादतों की .