पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/२०२

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अपनी करनी

आह, अभागा मैं ! मेरे कर्मों के फल ने आज यह दिन दिखाये कि अपमान भी मेरे ऊपर हँसता है। और यह सब मैंने अपने हाथों किया। शैतान के सिर इलज़ाम क्यों दूं, किस्मत को खरी-खोटी क्यों सुनाऊँ, होनी को क्यों रोऊँ। जो कुछ किया मैंने जानते और बूझते हुए किया। अभी एक साल गुज़रा जब मैं भाग्यशाली था, प्रतिष्ठित था और समृद्धि मेरी चेरी थी। दुनिया की नेमते मेरे सामने हाथ बाँवे खड़ी थीं लेकिन आज बदनामी और कंगाली और शर्मिन्दगी मेरी दुर्दशा पर आँसू बहाती हैं। मैं ऊँचे खानदान का, बहुत पढ़ा-लिखा आदमी था, फारसी का मुल्ला, संस्कृत का पण्डित, अंग्रेजी का ग्रेजुएट । अपने मुंह मियाँ मिट्ठू क्या बनूं लेकिन रूप भी मुझको मिला था, इतना कि दूसरे मुझसे ईर्ष्या कर सकते थे। ग़रज़ एक इन्सान को खुशी के साथ जिन्दगी बसर करने के लिए जितनी अच्छी चीजों की जरूरत हो सकती है वह सब मुझे हासिल थीं। सेहत का यह हाल कि मुझे कभी सरदर्द की भी शिकायत नहीं हुई। फ़िटन की सैर, दरिया की दिलफ़रेबियाँ, पहाड़ के सुन्दर दृश्य---उन खुशियों का जिक्र ही तकलीफ़देह है। क्या मजे की ज़िन्दगी थी!

आह्, यहाँ तक तो अपना दर्देदिल सुना सकता हूँ लेकिन इसके आगे फिर होंठों पर खामोशी की मुहर लगी हुई है। एक सती-साध्वी, पतिप्राणा स्त्री और दो गुलाब के फूल-से बच्चे इन्सान के लिए जिन खुशियों,आरजुओं, हौसलों और दिलफ़रेबियों का खजाना हो सकते हैं वह सब मुझे प्राप्त था। मैं इस योग्य नहीं कि उस पवित्र स्त्री का नाम जबान पर लाऊँ। मैं इस योग्य नहीं कि अपने को उन लड़कों का बाप कह सकूँ। मगर नसीब का कुछ ऐसा खेल था कि मैंने उन बिहिश्ती नेमतों की कद्र न की। जिस औरत ने मेरे हुक्म और अपनी इच्छा में कभी कोई भेद नहीं किया, जो मेरी सारी बुराइयों के बावजूद कभी शिकायत का एक हर्फ़ जबान पर नहीं लायी, जिसका गुस्सा कभी आँखों से आगे नहीं बढ़ने पाया- गुस्सा क्या था कुआर की बरखा थी, दो-चार हलकी-हलकी बूंदें पड़ी और फि