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१९२ गुप्त धन


उस दिन से मालूम नहीं वह कौन-सा आकर्षण था जो मुझे रोज शाम के वक्त आनन्दवाटिका की तरफ खींच ले जाता। उसे मुहब्बत हरगिज नहीं कह सकते। अगर मुझे उस वक्त भगवान न करे, उस लड़की के बारे में कोई शोक-समाचार मिलता तो शायद मेरी आँखों से आँसू भी न निकलते, जोगिया धारण करने की तो चर्चा ही व्यर्थ है। मैं रोज़ जाता और नये-नये रूप धरकर जाता लेकिन जिस प्रकृति ने मुझे अच्छारूप-रंग दिया था उसी ने मुझे वाचालता से वंचित भी कर रखा था। मैं रोज जाता और रोज़ लौट आता, प्रेम की मंजिल में एक कदम भी आगे न बढ़ पाता था। हाँ, इतना अलबत्ता हो गया कि उसे वह पहली-सी झिझक न रही। आखिर इस शान्तिपूर्ण नीति को सफल न होते देखकर मैंने एक नयी युक्ति सोची। एक रोज़ मैं अपने साथ अपने शैतान बुलडाग टामी को भी साथ लेता गया। जब शाम हो गयी और वह मेरे धैर्य का नाश करनेवाली फूलों से आँचल भर कर अपने घर की ओर चली तो मैंने अपने बुलडाग को धीरे से इशारा कर दिया। बुलडाग उसकी तरफ बाज़ की तरह झपटा, फूलमती ने एक चीख मारी, दो-चार कदम दौड़ी और ज़मीन पर गिर पड़ी। अब मैं छड़ी हिलाता, बुलडाग की तरफ़ गुस्से भरी आँखों से देखता और हाय हाय चिल्लाता हुआ दौड़ा और उसे जोर से दो-तीन डंडे लगाये। फिर मैंने बिखरे हुए फूलों को समेटा, सहमी हुई औरत का हाथ पकड़कर उसे बिठा दिया और बहुत लज्जित और दुखी भाव से बोला- यह कितना बड़ा बदमाश है, अब इसे अपने साथ कभी न लाऊँगा। तुम्हें इसने काट तो. नहीं लिया? फूलमती ने चादर से सर को ढाँकते हुए कहा-तुम न आ जाते तो वह मुझे नोच डालता। मेरे तो जैसे मन-मन भर के पैर हो गये थे। मेरा कलेजा तो अभी तक धड़क रहा है। यह तीर लक्ष्य पर बैठा, खामोशी की मुहर टूट गयी, बातचीत का सिलसिला कायम हुआ। बाँध में एक दरार हो जाने की देर थी, फिर तो मन की उमंगों ने खुद-ब-खुद काम करना शुरू किया। मैंने जैसे-जैसे जाल फैलाये, जैसे-जैसे स्वाँग रचे, वह रंगीन तबीयत के लोग खूब जानते हैं। और यह सब क्यों ? मुहब्बत से नहीं, सिर्फ जरा देर दिल को खुश करने के लिए, सिर्फ उसके भरे-पुरे शरीर और भोलेपन पर रीझंकर! यों मैं बहुत नीच प्रकृति का आदमी नहीं हूँ। रूप-रंग में फूलमती का इन्दु से मुकाबला न था। वह सुन्दरता के साँचे में ढली हुई थी। कवियों ने सौन्दर्य की जो कसौटियाँ बनायी हैं वह सब वहाँ दिखायी देती थीं लेकिन